कल कहीं टी वी पर हिन्दी का मखौल उडाया जा रहा था तो कहीं उसके साहित्य सृजन से जुडे लोगों का । कान ऐसे पकडिये या वैसे बात तो एक ही है ना। कब तक हिंदी के साथ अपनी ही धरती पर दोयम दर्जे का व्यवहार होता रहेगा और कब तक इसे सहना होगा। मौका था "जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल" का। चर्चा थी "राजस्थानी लोक साहित्य" पर ।
कार्यक्रम अलग-अलग दौर ,विषय और समय सीमा में विभाजित था।राजस्थानी लोक साहित्य पर चर्चा करने के लिये दो मशहूर राजस्थानी लेखक श्रीलाल मोहता और चंद्रप्रकाश जी देवल अपने निर्धारित समय पर उपस्थित थे। पर पहले से चल रही अंग्रेजी प्रकाशकों की वार्ता और चर्चा का दौर चल रहा था जिसके फलस्वरुप राजस्थानी लोक साहित्य पर चर्चा का दौर निर्धारित समय पर शुरु ना होकर कुछ विलम्ब से शुरु हुआ।
चर्चा परवान चढ़ रही थी कि तभी आयोजन से जुडी अंग्रेजी की चर्चित उपन्यासकार नमिता गोखले ने समय सीमा का हवाला दे कर दोनों को अपमानित किया और उन पर जमकर बरसीं ।साथ ही उन्हें बिना चर्चा को समाप्त किये मंच से उतर आने पर विवश किया। यदि वो समय की इतनी ही पाबन्द थी तो पूर्व में चल रही वार्ता में उन्होंने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया था। फिर उस पर नमिता के इस कथन ने किसी और को ना सही पर मुझे आहत किया कि "ये हिन्दी -राजस्थानी वाले तो माइक से चिपक जाते हैं। इन्हें चुप कराना बडा मुश्किल है। अंग्रेजी वाले इस मामले में आर्गेनाइज्ड रहते हैं। वे समय पर बात खत्म कर देते हैं।बीच में टोके जाने पर बुरा नहीं मानते"। उसके बाद का बडबोलापन यह,उन्होने दावा किया कि वो कई बार हिंदी लेखकों को स्टेज से उतार चुकीं हैं।
समाजसेवी स्वामी हग्निवेश और चित्रा मुदगल भी वहां उपस्थित थी, साथ ही इस बात पर चित्रा जी ने कहा भी" अंग्रेजी के लिये तो बडा सभागार रखा गया पर हिन्दी और राजस्थानी के लिये उपेक्षित सा ये कोना दिया गया"।
भाषा का और उससे जुडे लोगो का इससे ज्यादा क्या अपमान होगा? धिक्कार है उन पर जो ऐसे आयोजनों में मौजूद तो रहते हैं पर विरोध तक नही कर सकते। धिक्कार है हम पर भी जो मूक दर्शक बने सहते रहते हैं। जब तक ऐसे बर्तावों की खिलाफत नहीं की जायेगी तब तक बारम्बार इसी तरह होता रहेगा। अपने ही लोगों के हाथों अपनी अस्मिता पर आंच आते देखते रहेंगें और यूं ही मखौल उडवाते रहेंगें।
पूरी जानकारी के लिए दैनिक भास्कर की इस खबर को पढ़ा जा सकता है।
Monday, January 28, 2008
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17 comments:
मैं ये कहकर पल्ला नहीं झाड़ना चाहता कि इसके लिए जिम्मेवार हिन्दीवाले ही है लेकिन एक बात तो माननी ही होगी कि हिन्दी के लोगों ने जितना समय राजनीति और जुगाड़ में लगाया है उसका दस फीसदी भी हिन्दी की पुरानी छवि ध्वस्त करने में लगाते तो अंग्रेजीवाली मैडम को अपने साहित्यकारों को अपमानित करने के पहले दस बार सोचना पड़ता। कितने लोग इसके विरोध में आगे आएंगे, सारे मसलों पर राजनीति करेंगे लेकिन इसका विरोध कभी नहीं।
:(
धिक्कारना जायज है।
निंदनीय है पर आत्मचिंतन भी जरुरी है कि क्या वाकई इनका कहना सही है?
बहुत ही दुखद हुआ, जो कुछ भी हुआ।
जिस लेखिका ने यह सब किया वे धिक्कार के लायक ही है।
क्या कहें? :(
iske liye khud hindi sahitykar jimmedar hain. rahi sahi kasar netaon ne aur unki netagiri ne poori kar dee hai.
इस सब के लिए हम सब भी कहीं ना कहीं जिम्मेदार है।
अंग्रेजी लिखने वालों को भी स्वयं को श्रेष्ठ समझने का गुब्बारा सदृश्य दंभ है। कोई सूई चुभाने वाला जो नहीं...अंग्रेज चले गये रक्तबीज यह भाषा छोड गये हैं जो न केवल हमारा स्वाभिमान खाती है अपितु एसी सोच वालों को...........शर्म आती है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
anuradhajee, aap mere blog par aayeen aur kamleshwarjee ke ak sal pahle dunia ko alvida kahne kee kahanee ko jana, iske liye shukrgujar hun.
ये नमिता जैसों को लोग स्टेज पर चढ़ाते ही क्युं है?
इसकी जितनी निन्दा करी जाय यह कम है.
दैनिक भास्कर के जयपुर संस्करण में पढ़ा था, तभी खटक गई थी बात। नीलिमा ने भी इस पर मोहल्ला में लिखा। अंग्रेजी का ज्ञान आज भी सचमुच घमंड करने की बात रह गई है क्या...शर्म और धिक्कार का ही विषय है।
ऐसा तब तक होता रहेगा, जब तक हिंदीवाले स्टेटस के नाम पर अंग्रेजी वालों का मुंह देखते रहेंगे। हिंदी के लेखक अंग्रेजी में अपनी प्रशंसा के लिए लालायित होना छोड़ देंगे तो ऐसी अनर्गल उपेक्षाओं का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। इन कथित अंग्रेजीदांओं में भाषा का दंभ तो है पर इस बात की कुंठा भी है कि हिंदी के लेखक उनसे कई गुना ज्यादा लोकप्रिय हैं। ब्लाग पर घूमनेवालों में भी चित्रा मुद्गगल का नाम नमिता गोखले से ज्यादा जाना पहचाना होगा।
अनुराधा जी,
मेरे कुल बारह ब्लोग हैं. इन पर मैं यह ब्लोग धीरे धीरे लिंक करूंगा.आज एक ब्लोग http://rajlekh.wordpress.com पर लिंक कर रहा हूँ. आपका लेखन उद्देश्यपूर्ण है.
दीपक भारतदीप
namita gokhle ji ke baare me adhik nahi jaanta lekin kisi bhi tareeke ki abhadrataa unke charitra ki khot hi dikhaati hai. tanik sahishnutaa se kaam liyaa jaa sakta tha.
aur 'hindi-raajsthaani wale...' jaise shabdon ka prayog karte samay unhe tanik bhi lajja nahi aayi??? kuchh angreji ki pustake likhne ke baad maatribhasha kyaa itni begaani ho gayi? kisi bhi lekhak ko duniya ki kisi bhi bhaasha-varg ko is tarah se sambodhit karna neechta hai.
kahin ye publicity ka stunt to nahi?
आज के युग में यदि अंग्रेज़ी जानना यदि कोई दम्भी की बात समझता है तो उससे ज़्यादा मूरख कौन हो सकता है? लगता है नमिता २०वी सदी के पूर्वार्ध की पैदाइश हैं जब अंग्रेज़ी जानने वाले यह मानना ही नहीं चाहते थे कि वे हिन्दी भी बोल सकते हैं। दूसरी ओर अज्ञेय जी से लेकर बच्चन जी तक कितने साहित्यकार ऐसे रहे जो अंग्रेज़ी के विद्वान थे मगर सेवा हिन्दी की की.
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