Thursday, July 22, 2010

आखिर कब तक................

सारे न्यूज़ चैनल में बडी ही सुर्खियों से महिला हाकी के शीर्ष पदाधिकारियों की कारगुजारियों का खुलासा आ रहा था। क्यों ? कब तक ? कहां तक यह शोषण चलता रहेगा मैं यह सोच-सोच कर उद्वेलित हो रही हूं।
वैसे ही हमारे यहां महिला खिलाडियों की कमी है कुछ महिला खिलाडियों को छोड दिया जाये जिन्हें उनकी प्रतिभा के साथ-साथ अपने परिजनों का भरपूर सहयोग और मार्गदर्शन मिला और उन्होंने उसे सही भी साबित किया। सानिया नेहवाल हो या सानिया मिर्जा , मिताली या झूलन इन्होनें देश का नाम रोशन किया है।
अगर शोषित खिलाडी हिम्मत ना दिखाती तो ना जाने कितनी अन्य युवा खिलाडी भी इस तरह की परिस्थितियों में उलझ सकती थी । विचारणीय बिन्दु यह है कि क्या इन महिला खिलाडियों की सुरक्षा व्यवस्था इतनी लचर है या कोई आचार-संहिता है ही नहीं कि जब जैसे जिसका मन हुआ उसने उसका फायदा उठाया।
हमारे देश की जनसंख्या या भौगोलिकता को ध्यान में रखा जाये तो उस अनुपात में खेलों में हमारी भागीदारिता नगण्य ही है। तिस पर महिला खेलों व खिलाडियों की संख्या और भी कम है । ऐसे में इस तरह की कारगुजारियों से उभरती खेल प्रतिभाऒं का आत्म-विशवास तो डिगता है साथ ही उनके परिजनों के हौसले भी पस्त होते हैं ।
महिला हाकी टीम बिना किसी कोच के विदेश दौरे पर गयी है कोच की कितनी अहम भूमिका होती है उसकी जीती-जागती मिसाल मेरोडिना है जिनके मार्गदर्शन में उनकी टीम का प्रदर्शन निखरा । ऐसे में कोच के बिना गई टीम व खिलाडियों की मनःस्थिति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है इससे उनके खेल व प्रदर्शन पर प्रभाव तो पडेगा ही उनके साथ-साथ उन सभी पर भी जो उनसे परोक्ष या अपरोक्ष रुप से जुडे हुए हैं ।
इस तरह की घटनायें हमेशा नकारात्मक असर ज्यादा डालती हैं जिनके दुष्परिणाम हो सकते हैं किसी उभरती खेल प्रतिभा का दमन हो जाये या उस पर इसतरह का पारिवारिक दबाव डाला जाये जिसके कारण वो हमेशा-हमेशा के लिये खेल से सन्यास ले ले।
जब तक हमारे खेलों में और उनके सरपरस्त पदाधिकारियों के मध्य राजनीति के दांव-पेंच चलते रहेंगें तब तक किसी भी खेल में अपना वर्चस्व या पदक की दावेदारी खोखली ही साबित होगी । जरूरी है घटना की तह तक जा कर निष्कर्ष निकालने की और इन घटनाऒं की पुनरावृति ना हो इसके लिये सख्त कदम उठाने की ।

Tuesday, July 6, 2010

शब्द ,मैं चाहती हूं तुमसे दोस्ती करना

बिखरे हुए शब्द उलझे हुए अर्थ

और उन सबसे झुझती मैं

संभाल नहीं पाती

अपनी अभिव्यक्ति के लिये

कोई भी माध्यम

वाणी पहले ही साथ छोड चुकी थी

फिर भी

शब्दों को संजोती थी

सजाती थी छौने की भांति

बदलते वक्त से वो भी बेगाने हो चुके हैं

शब्द अब अर्थों को मन्तव्य को उद्भासित नहीं करते

मैं

अब विचलित नहीं होती

शब्द अब शायद तुम्हारी जरुरत

नहीं सम्वेदना बाकी होती तो शायद तुम्हारा दामन थामती भी

शब्द मैं तुमसे खेलना चाहती हूं

फिर से भावों की लडियां संजोना चाहती हूं

रूको पहले सम्वेदना जगा लूं

फिर तुम्हारा दामन थामूंगीं

जानती हूं जब भी मैं तुम्हें पिरोती हूं माला सा

तो उत्साहित होती हूं बच्ची सी

शब्द सच्ची मैं चाहती हूं तुमसे दोस्ती करना

Monday, August 17, 2009

कॉमनवेल्थ गेम और दिल्ली - एक नजरिया

कामॅनवेल्थ गेम्स के लिये तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं। बहुत सारी प्लानिंग्स और दिल्ली के सौंदर्यकरण के लिये कुछ महत्वपूर्ण कदम भी उठाये जा रहें हैं। आज की टापॅटेन खबरों में था -कि दिल्ली की झुग्गी -झोपडियों को पर्दानशीं करने की योजना। कामॅनवेल्थ गेम्स के दौरान बाहर से आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को उनके दीदार न हो इसके लिये झुग्गी -झोपडियों को बांस की खप्पचियों की चार-दीवारी से ढक दिया जायेगा ताकि उनके अस्तित्व को लेकर ,उनके जीवन-स्तर को लेकर अनावश्यक शर्मिन्दगी से बचा जा सके।

क्या इस कदम का कोई औचित्य है? झुग्गी वासियों के लिये कुछ नहीं किया गया ।झुग्गी -झोपडियों के उन्मूलन के लिये कोई कदम नहीं उठाया गया बल्कि बांस की चारदीवारी से उन्हें छुपाने का अनथक प्रयास जरूर शुरू होने वाला है। इनके अस्तित्व को लेकर यदि इतनी ही परेशानी है तो झुग्गी -झोपडियों के अस्तित्व को मिटाने के लिये ,उनके उन्मूलन के लिये कोई मुहिम शुरू क्यों नहीं करी जाती ।कोई ठोस योजना को क्रियान्वित क्यों नहीं किया जाता। जब भी कोई झुग्गी कुकरमुत्ते की तरह पनपने लगती है तो उसी समय उनके रहवासियों के रहने की व्यवस्था व उनकी समस्याओं का निराकरण क्यो नहीं किया जाता।सरकार क्यों निर्धारित किराये पर इन्हें बहुमंजिला आवास उपलब्ध नहीं करा सकती?

झुग्गी-झोपडियों में रहने वालों की अहमियत को दरकिनार नहीं किया जा सकता क्योंकि आम लोगों की रोज-मर्रा की जिन्दगी को सुचारू रूप से चलाने में इनका बहुत बडा योगदान है। कामवाली बाई,मजदूर,कारीगर भंगार वाले और भी बहुत से लोग वहीं से हैं । हम हर समस्या का निराकरण करने में सक्षम हैं पर समस्या व समाधान का राजनीतिकरण, अफसरशाही,बाबूशाही व भ्रष्टाचार किसी भी योजना को पनपने ,साकार होने व सफल होने से पहले ही दम तोडने को मजबूर कर देती है।इच्छा शक्ति की अल्पता व सहयोग की कमी भी योजना को मूर्तरूप नहीं लेने देती। इंडोनेशिया से हमें सबक लेना चाहिये-जहां झुग्गी-झोपडियों के उन्मूलन के लिये एक व्यक्ति के द्वारा शुरू किया गया प्रयास एक अभियान बन चुका है। एंडी सिसवांतों के अनथक प्रयत्न व प्रयासों को चौतरफा सहयोग मिला तो झुग्गीवासी विस्थापित होने की बजाय अपनी जमीन के मालिक बनें व उनके जीवन-स्तर में व्यापक बदलाव आया। आज इंडोनेशिया के कई शहरों में ये प्रोजेक्ट जोर-शोर से चल रहें हैं तथा सफलता प्राप्त कर रहें हैं।आज हमें भी कुछ ऐसे ही एंडीसिसवांतों की जरूरत है जो हमारे अपने लोगों के जीवन-स्तर व जीवन-यापन के तौर-तरीकों में अहम बदलाव ला सके । जरूरत है कि इन्हें मुख्यधारा में होने का अहसास कराया जा सके । भविष्य मैं हमें इन्हें छुपाने या इनको लेकर हीन -भावना से ग्रस्त होने की बजाय हमें इनके विकास के लिये ठोस कदम उठाना ही होगा।

Monday, March 2, 2009

देह से इतर मन-प्राण और भी है............

नारी शोषण की बात कोई नयी तो नहीं है फिर भी हर बार ये कचोटती है विचलित करती है। आदिमकाल से चली आ रही शोषण की व्यथा व कथा आज भी कायम है। कभी प्रतिशोध के तहत उसे रौंदा गया तो कभी जश्न कै बतौर भोगा गया। लेकिन शोषित तो एक वर्ग ही रहा ना। अफसोस तब और अधिक होता है जब बदलते परिवेश व अधिकार की दुहाई दी जाती है। लेकिन उस सबके बावज़ूद आज भी आदिम परम्परा के रुप में नारी को ही शोषण का केन्द्रबिन्दु बना दिया जाता है। आदिवासी कबिलों की बात तो दीगर ये सब मुख्यधारा में रहने वाली नारी के साथ हो रहा है। कार्यक्षेत्र हो या स्कूल या कालेज हर बार दोषी भी वही करार दी जाती है।

कुछ दिन पहले महिला नक्सलवादी की एक टिप्पणी ने स्तब्ध कर दिया जिसमें उसने कहा था कि जंगल में रात के अंधेरे में उसके साथ शरीरिक सम्बन्ध बनाने वाला कौन है वो खुद भी नहीं जानती थी। समूह का कोई भी पुरूष सदस्य उनके साथ सम्बन्ध स्थापित कर सकता था और वो प्रतिवाद भी नहीं कर सकती थी। अपनी विवशता और नक्सलवाद से मोहभंग ने ही उन्हें फिर से मुख्यधारा में आने के लिये प्रेरित किया और वो आत्मसमर्पण के लिये तैयार हुईं। कुछ महिला नक्सलियों का एडस से ग्रसित होना इसका प्रमाण है।

धौलपुर के ईनामी डकैत जगन गर्जर पर भी उसके दल की महिला सदस्यों ने भी कुछ इस तरह के आरोप लगाये हैं।
दल में महिलाऒं के शामिल होने की भी अपनी वजह है। अपह्रत महिला शारीरिक शोषण का शिकार बनायी जाती थी।किसी तरह वो उनके चंगुल से बच निकलती तो परिवार व समाज से बहिष्कृत कर दी जातीं।उसके बाद इन महिलाऒं के पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता और वो उस दल की सदस्या बना ली जाती। डकैतों को पनाह देने वालों को बतौर उपहार उस रात महिला सदस्य को उसके सुपुर्द कर दिया जाता है। यही नहीं दल के अन्य पुरूष सदस्यों का भी उन पर अधिकार होता है और वो किसी भी तरह की मनमानी के लिये स्वतन्त्र है।

इन सब घटनाऒं को देखते -सुनते हुए मन आहत है। बार-बार यही लगता है देह से इतर मन-प्राण और भी है।

Wednesday, December 17, 2008

आईना



आईना
अपनी वाणी को झोली में बांध
दुछत्ती पर चढा मैं खूश हूं
भूल चुकी कभी मैं भी
प्रतिक्रिया व्यक्त करती थी
होते देख अन्याय सुलग पडती थी
अब नजरिया बदल
हर बात में कारण खोज लेती हूं
ऐसा तो होना ही था
मान लेती हूं
गलती शायद मेरी ही है
खुद को समझा लेती हूं
कई बार आइने में
अपनी शख्सियत खोजी
एक परछाईं तो दिखती है
पर मैं कहां हूं ?
अभी तक नहीं जान पायी
तुम कहते हो शायद मैं मर चुकी
नहीं ऐसा नहीं
बिल्कुल नहीं
मैंने अपना वज़ुद खोया
पर
कितनों के चेहरे की हंसी बनी
मेरा परिचय- नारी हूं
मात्र नारी

Monday, September 29, 2008

श्राद्ध

श्राद्ध पक्ष आते ही घर में विवादों का दौर शुरू हो जाता था। मनीष ब्राह्मणों को खाना खिलाने का विरोध करते और मम्मी उनके खाने खिलाने के पक्ष में नाना तर्क दिया करती उनके अनुसार ब्राह्मणों को खिलाया गया खाना हमारे पुर्वजों को उनकी आत्मा को संतुष्टी देता है और भी कई सारे। मनीष की दलील होती थी कि जो श्रद्धा से किया जाये वही श्राद्ध। साथ ही कहते इन पंडितों को भोजन करते देख मन में वितृष्णा होती है।
बडी समस्या उनको खोज कर लाने में आती किसी के पास टाइम की कमी है तो कोई पहले से ही बुक्ड । अपने परिचितों को फोन किया जाता गली-गली भटका जाता तीन-चार दिन की भागदौड रंग लाती और कोई ना कोई मिल ही जाता। विधि-विधान से पापा धूप देते और घर की बहू होने के नाते खाना परोस कर खिलाने की जिम्मेदारी हमारी होती। बडे मानमनुहार से खाना -खिलाया जाता मम्मी अपनी तीखी नज़र बनाये रखती की कहीं कोई चूक या गुस्ताखी तो नहीं हो रही। खैर निर्विघ्न श्राद्ध समपन्न हो जाया करता ।
इस बार पापा-मम्मी श्राद्ध पक्ष में यहां नहीं हैं और श्राद्ध करने की जिम्मेदारी मनीष की थी । उन्होंने पहले ही चेता दिया था कि अगर श्राद्ध पर ब्राह्मण को खाने पर बुलाना है तो उनका कोई योगदान नहीं होगा . श्राद्ध होगा तो उनके कहे अनुसार । हमारी कुछ समझ में नहीं आ रहा था पर मन मसोस कर चुप थे। एक दिन पहले ही बता दिया गया था कि ठीक टाइम पर तैयार रहना कहीं चलना हैं । घर पर थोडी पूजा आदि करके हम लोग वृद्धाश्रम गये । ये पहला मौका था किसी वृद्धाश्रम जाने का । बहुत ही साफ-सुथरा खुला-खुला बडा सा घर । घर में घुसते ही एक दालान उसे पार करने के बाद एक चौक जिसके चारों और कमरे थे । साइड में एक बडा सा हाल जो कि मनोरंजन कक्ष था । तभी एक नोटिस बोर्ड पर नज़र पडी जिसमें लिखा गया था "आज का भोजन मनीष श्रीवास्तव की ऒर से " अब वहां आने का औचित्य समझ में आने लगा था। कुछ ही देर में सारे आश्रमवासी भोजन कक्ष में एकत्रित थे शुरू में थोडी औपचारिकता थी परिचय का दौर जल्दी ही खत्म हो गया था। तभी वहां के कर्मचारी ने बताया की यदि आप स्वयं खाना परोस कर खिलाना चाहते हैं तो सहयोग के लिये रसोईकक्ष में आ सकते हैं। हमारे साथ हमारे मित्र रेखा और वीरेन्द्र भी गये थे । सबने मिल कर खाना परोसा और खिलाया
खाने के दौरान एक बुजुर्ग आश्रमवासी भावविह्वल हो कर रोने लगे। हम चारों इस परिस्थिति के लिये तैयार नहीं थे। घर का माहौल बडा बोझिल सा हो गया था। घर का हर सदस्य अन्तर्द्वन्द से घिरा सा था। खाने के बाद जब साथ मिल कर बैठे तो किश्नलाल जी ने बताया कि चार बेटे हैं पोते-पोतिया हैं यहां तक की परपोते हैं। घर के पुराने सदस्यों से बात हुई तो बोले अभी इन्हें आये हुए सिर्फ एक महीना । थोडे दिन में आदत हो जायेगी।
जान कर आश्चर्य हुआ कि ज्यादातर लोगों का भरापूरा घर था। मन में एक सवाल बार-बार उठ रहा था कि आखिर चूक कहां हो रही है? हमारे जीवनमूल्य क्या इतने थोथे हैं कि जिनकी उंगली पकड कर हमने चलना सीखा आज उनसे ही बेजार है।क्यों अपनों से मुंह मोड रहें हैं ? बातों ही बातों में एक अम्मा जी ने बताया कि वो कहां रहती थी क्या करती थी मनीष बोले हां मैं जानता हूं। इतना सुनते ही अम्मा जी का चेहरा एकदम फक था अगले ही पल वो घिघिया उठी बेटा किसी से कहना नहीं मोहल्ले वालों को बोला है कि इन्दौर भाई के घर जा रहीं हूं। मैं हैरान थी की ये अपने उन बेटों की इज्जत बचाने के लिये घिघिया रहीं हैं जिन्होंने उन्हे असहाय सा घर से निकाल दिया। रिश्तों के कई रूप बातों -बातों में सामने आ रहे थे। कुछ चाह कर भी बात नहीं करना चाह रहे थे ।
एक बुजुर्ग बोले क्या मतलब बिटिया आज तुम सब आये हो रोज थोडे ही कोई आता है। वैसे रहना तो अपने हाल ही में है ना। एक जोगिया कुर्ते वाले बाबा जी हम सबसे बेखबर होने का असफल नाटक कर रहे थे। वो लगातार अपना मुहं और डबडबाई आंखें एक किताब में गडाये थे। एक वैरागी भी थे जिन्होने सारी जिन्दगी एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर तक पदयात्रा करते हुये गुजार दी। अब टूटे हुए पैर के साथ वहां हैं । उन्हें अपनी जिन्दगी से कोई मलाल नहीं बात -बात में कबीर के दोहे सुनाना उनकी आदत में है। अलमस्त फक्कड से शायद सबसे ज्यादा वही सुखी थे।
कई बार खुद की आंखे भर-भर आयी । उन लोगों की मनःस्थिति का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कैमरा देखते ही वो अपना मुंह छुपाने लगे । शायद छोटी जगह और किसी के द्वारा खुद को पहचान लिये जाने का भय उन्हें सता रहा था। एकाएक हमें अपनी गलती का अहसास हुआ और कैमरा वापिस बैग के हवाले किया। ये बात भी कुछ अजीब सी लगी कि वो लोग उन अपनों को बेइज्जत होने से बचाना चाहते हैं जिन्होने उन्हें बेघर कर दिया। बातों ही बातों में कितना समय निकल गया पता ही नहीं चला। जब सबसे दुबारा आने का वादा करके चले तो मन भारी था पर कई आश्रमवासियों के चेहरे पर सुकून की मुस्कुराहट थी। आज वाकई श्राद्ध का यह अनूठा तरीका मन में श्रद्धा भर गया।

Wednesday, May 14, 2008

गुलाबी शहर और आतंक का मंज़र

कल शाम से मन उदास है। बदलती फिज़ा शायद अहसास दिला रही है कि बहुत कुछ बदल गया और उतनी ही तेजी से बदलता जा रहा है। मुठ्ठी से दरकती रेत की मानिंद ।

"पधारो म्हारे देस" की गुहार लगाने वाला गुलाबी नगर कल लाल रंग से रंग दिया गया। महज आतंक फैलाने के लिये। ये सब करके क्या हासिल करना चाहते हैं ? बेगुनाहों के मौत का मंजर क्या विचलित नहीं करता। जैसे ही सिलसिलेवार विस्फोटों की खबर सुनी । एकबारगी तो विशवास नहीं हुआ फिर अगले पल शुरू हुआ फोन करने का क्रम सबसे पहले अपनी बेटी को फोन करके पूछा कहां हो? सुरक्षित है जान कर सांस में सांस आयी फिर अपने नजदीकी रिश्तेदारों को।

नज़रें टीवी पर चिपकी हुई । विचलित और हतप्रभ से हम सब । ना जाने कितने विचार ,आक्रोश और मन में ढेर सा असन्तोष। कौन जिम्मेदार है हमारी नीतियां, हमारा कानून ,नेता या सत्ता की लोलुपता आखिर कौन ? एक के बाद एक सुनियोजित हमले और उनको रोकने में विफल हमारा तंत्र । ये सिर्फ जयपुर पर हुए हमले की बात नहीं है । हर वो जगह जहां इस तरह के हादसे हुये हैं और ना जाने कितने बेगुनाह मारे गये हैं। लचर कानून की आड व लम्बी कानूनी प्रक्रिया शायद आतंकियों के हौसलें बुलन्द किये हुये है। कुछ भी हो ऐसे हादसों की पुनरावृति रोकने के लिये यदि बर्बर कानून बना लेने चाहिये ताकि कोई भी इस तरह की घटना को अंजाम देने से पहले सौ बार सोचे।

हर बार खून के इस मंज़र को देख कर मन खून के आंसू रोता है । आखिर कब तक ? उनका क्या जिन्होनें अपने लोग खोये हैं। वाकई अभी भी विचलित हूं। एक असाहयता का भाव हावी होता जा रहा है। हम मूक दर्शक बने सब देखते हैं , सहते हैं पर करते कुछ नहीं। काश इन सबको समय रहते नियंत्रित कर लिया जाये । अन्त में उन सब हताहतों को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि ।