Thursday, December 20, 2007

"उफ्फ ये मीडिया"

कुछ अच्छा सा देखने की नीयत से हम बार-बार टी.वी. का रिमोट खटकाये जा रहे थे। तभी नज़र पडी एक न्यूज़ चैनल से प्रसारित हो रहा था-थोडी ही देर में-"चोकिंग" युवाऒं खासतौर पर बच्चों में लोकप्रिय होता नया गेम। जिज्ञासावश हमने भी पूरा प्रोग्राम देखने की ठानी।

जैसे -जैसे चोकिंग गेम की असलियत सामने आयी हमारी रुह काँप गई। एक तरह से आत्महत्या की रिहर्सल जैसा कुछ-कुछ। इस बात पर और ज्यादा कोफ्त हुई कि जिस तरह से उस न्यूज़ चैनल ने पूरे दिन उस " गेम"को लेकर शगुफा फैलाया था उससे निश्चित ही दर्शक संख्या में इज़ाफा हुआ होगा। हमारे जैसे अज्ञानी भी पूरी तरह से इससे वाकिफ हो चुकें हैं । सोचिये "सिरफिरे" ,कुछ नया करने की चाह रखने वाले युवा खासतौर पर बच्चे । उनका क्या होगा? दावे से कह सकते हैं, कि जिस तरह से इस गेम की चर्चा करीं गई उससे प्रेरित हो कर कुछ लोग तो इसे ट्राई कर चुके होंगें।

चोकिंग-साँस रोकने की ऐसी प्रक्रिया जिससे ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है और फिर मृत्यु की निकटता का अहसास किया जाता है। और उस अहसास को शब्द दिये गये"मृत्यु से एक मिनिट पहले मौत का रोमांच"।"ऑक्सीजन की कमी से जो अस्थायी परिवर्तन होते है उनका अहसास कई मादक पदार्थों के सेवन से उत्पन्न होने वाले नशे से अधिक हैं।" इस तरह से इसके प्रभाव का वर्णन जैसे चोकिंग कोई बडी ही खास चीज़ है। इस तरह के उदाहरण मेरे ख्याल से काफी हैं ,उन लोगों के लिये जो किसी भी तरह का जोखिम उठाने का माद्दा रखते हैं है, या कुछ नया अनुभव करने की हसरत।

इस तरह के कायर्क्रम का औचित्य क्या है ? ये हमारी समझ के बाहर की बात है। आपको पता हो तो प्लीज़ हमें भी समझा दीजियेगा। वरना "मीडिया वालों को सदबुद्धि दें" कुछ इस तरह की प्रार्थना हमारे साथ कर लीजियेगा।

Friday, December 7, 2007

"शिक्षक बनाम बिना रीढ की हड्डी वाला प्राणी"

एक समय था जब शिक्षक को सबसे सम्मानीय समझा जाता था। जहाँ तक मेरे बचपन की मुझे याद है हम अपने शिक्षक के नियमित रूप से पैर छूते थे। वो भी प्रत्येक विद्यार्थी को निजी तौर पर जानते थे।
आज ना शिक्षक अपने विद्यार्थी को जानता है ना उसका उसे मौका ही मिल पाता है। बेचारे सरकारी शिक्षक की ड्यूटी विद्यालय को छोड कर हर जगह जो लगा दी जाती है। मतगणना हो या पशुगणना,बीपीएल सूची के लिये नामों की लिस्ट बनानी है या मतदाता सूची का नवीनीकरण करना है,सर्व उपलब्ध प्राणी है ना शिक्षक । मिड डे मील के नाम पर खाना तक बनाना पडता है।आर्थिक गणना हो या पल्सपोलियों,स्वास्थ्य संबंधी जानकारी के लिये कोई आंकडे उपलब्ध कराने हो तब भी उन्हें ही भेजा जाता है. बिना ये जाने की उनके इतर कामों में व्यस्त रहने का खामियाजा बच्चे भुगतते हैं।एक तरफ साक्षरता दर बढाने के प्रयास हो रहें हैं, तो दूसरी तरफ शिक्षक के अभाव में पढाई से अरुचि के कारण स्कूल छोड कर जाने वाले बच्चों की संख्यां भी कम नहीं है।
दोष किसे दें हमारे तंत्र को या शिक्षकों को? कभी शिक्षकों की मनःस्थिति जानने की कोशिश करी गई है क्या ? वो कितने मानसिक तनावों से गुजरते है। किसी तरह पाठ्यक्रम को पूरा कराना साथ ही अन्यत्र लगायी गई ड्यूटी का निर्वाह करना। अन्त में खराब रिजल्ट देने पर गाज़ भी उन्हीं पर गिरती है। जब कभी अपने साथियों को दर-दर आंकडे एकत्रित करते पाती हूँ तो अपने नौकरी ना करने के निर्णय को खुद ही सरहाती हूँ। जिस उद्देश्य और मानसिकता के तहत इस कार्यक्षेत्र का चुनाव किया जाता है । उससे नितान्त अलग प्रकृति के जब काम करने पडते है ,तो कैसी कोफ्त होती है। ये तो वो ही अच्छे से जानता है जो कि भुक्तभोगी है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आज कुछ राहत महसूस हुई है जिसमें की आदेश दिये गये है कि शैक्षिक दिवस के दौरान शिक्षकों की अन्यत्र ड्यूटी ना लगाई जाये। उम्मीद है इससे शिक्षकों को कुछ तो राहत मिलेगी।

Saturday, November 10, 2007

सपने में देखी सुनीता जी की पार्टी

सपने में देखी सुनीता जी की पार्टी


समीर जी के स्वागत में सुनीता जी ने जो पार्टी रखी थी उसमें क्या-क्या होगा उसकी कल्पना करते-करते ना जाने कब आँख लग गई। भला हो सपनों का, जो काम सहज ना होता हो वो सपनों में चुटकी बजाते ही सम्पन्न हो जाता है। तो सुनिए आप भी हमारी स्वप्नदर्शी पार्टी का आँखों देखा हाल-

धीरे-धीरे रंग पार्टी का जमने लगा है,
कोई गलबहियां डाले तो,
कोई चहक-चहक कर मिला,
पर जो भी मिला खूब गर्म जोशी से मिला।
सुरुर जमने लगा और सुगबुगाहट शुरु हो गयी।

कहीं से एक आवाज़ उठी और भीड में खो गई,
थोडी ही देर में उसी प्रश्न को हमने लपक लिया,
"समीर जी इतनी सारी टिप्पणीयाँ करने और पढने का समय कैसे निकालते हैं?
समीर जी ने अपना प्रिय काला चश्मा उतारा,
कनखियों से हमें निहारा
और बोले नादान "सीसीपी" का जमाना है
हम ठहरे लिपट अज्ञानी,
गावदी की तरह आँखें झपकाई और दोहराया "सीसीपी"
समीर भाई मुस्कुराये, धीरे से बुदबुदाये
"कट,कापी और पेस्ट"।

हम बलिहारी थे
और अपनी अक्ल पर पानी-पानी थे।
काश पहले जान जाते,
समीर जी की जगह लोगों की ज़ुबां पर अपना नाम पाते,
पार्टी उनके सम्मान में नहीं ज़नाब हमारे लिये हो रही होती,
तभी ज्ञानदत्त जी पर नजर पडी-
हम तपाक से मिले पूछा -
इतनी विविधता कहां से लाते है?
रोज़ ब्लाग पोस्ट करने का टाइम कहां से पाते हैं?
वो थोडा सा सकपकाये फिर,
उन्होनें ऊपर से नीचे तक निहारा
और तपाक से बोले- "सरकारी मुलाज़िम हूँ इतना तो जानते हैं"।

काश धरती फट जाती और हम उसमें समा जाते,
अपनी कम अक्ली पर लोगों के तानों से तो बच जाते।

भीड में सारथी जी हर किसी को
ब्लागरी करने और पढने के लिये
"मोटिवेट" करते नजर आये।
जिस हिसाब से लोग प्रभावित थे
उस हिसाब से ब्लागर्स की संख्या
दस हजार की जगह
पंद्रह हजार का आंकडा छूयेगी
हम प्रभावित थे उनके डेडिकेशन से।

दूर नजर पडी संजीत जी पर
ज़नाब मजमा जमाये थे-
गोपियों की भीड में
कान्हा से जमे थे-
मुँह में पान भरे थे,
किसी बात पर बोले
"अपुन साला तो ऐसइच है"।

काकेश जी गुरु मंत्र दे रहे थे,
संजय गुलाटी जी हस्तरेखा व ज्योतिष का ज्ञान सबमें बाँट रहें थे।
एक ओर शैलेष जी,राजीव जी व गिरीराज जी
हिन्दयुग्म की "पब्लिसिटी" में लगे थे
दूसरी ओर अनिता जी सौम्य सी,
ऑर्कुट को ज्वाइन करने के फायदे गिना रही थी।
भई हम उनसे सौ प्रतिशत सहमत हैं,
"ना ये बात होती
ना वो बात होती"
वाला आलम हम भी जानते हैं,मानते हैं।
दुहाई हो ऑर्कुट की जिसने आप जैसे मित्रों से मिलाया।

सुनीता जी उस घडी को कोस रहीं थी जब उन्हें पार्टी देने का आइडिया आया। बाकी सब मेलमिलाप में व्यस्त थे और वो बेचारी ग्यारह साल के कवि अक्षत के साथ एक पाँव से चक्करघिन्नी बनी हुई थी। काश ये एहसास पहले होता तो समीर जी से औपचारिक मुलाकात ही कर लेती, थोडे बहुत गुरु-मंत्र पा लेतीं।

तौबा मत करिये जनाब आज बस इतना ही थोडे दिनो के बाद जब आप सब हमें झेल पाने का धैर्य फ़िर से पा लेंगे, तब पुनः उपस्थित होंगे और इस स्वप्नदर्शी पार्टी का शेष हाल सुनायेंगें।



(यह रचना सिर्फ़ मौज-मस्ती के मूड में लिखी गई है, आशा है इसे पाठक या अन्य कोई भी, अन्यथा नही लेंगे।)

Monday, November 5, 2007

एक परम्परा यह भी

"हताई" गाँव में किसी भी समस्या के समाधान के लिये जो बैठक बुलाई जाती है, उसे हताई कहते है। इसमें सिर्फ गाँव के पुरुष ही हिस्सा लेते हैं। हताई को एक तरह से गाँव का कोर्ट भी कह सकते हैं। छोटे-मोटे झगडे,मनमुटाव आदि यहाँ पर निपटाये जाते हैं। तथा गाँव के हित में लिये जाने वाले निर्णय भी यहीं लिये जाते हैं।

हताई में किसी भी महिला का भाग लेना तो दूर उस स्थान के नजदीक जाना तक उसके लिये निषेध होता था।पर समय के साथ कई जगह अब परम्परायें भी बदल रही हैं।

भीलवाडा जिले के उप तहसील करेडा के पास सिंजाडी का बाडिया में दलित महिलायें भी गुर्जर समुदाय के साथ हताई में भाग लेती हैं। महिलाऒं के इसमें शरीक होने से दो फायदे हुए एक तो दोनों समुदाय के बीच के टकराव कम हुए। दुसरे गाँव से जुडा कोई भी मामला अदालत तक नहीं पहुँचा । पिछले दस सालों से यह बदलाव आया है । ग्रामीण स्तर पर शुरु होने वाली कई परियोजनाऒं में महिलाऒं की सक्रिय भागीदारी है।शुरु में महिलाऒं की भागदारी को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई।विरोध के स्वर भी उठे पर बाद में सामाजिक स्तर पर आये परिवर्तनों ने विरोधियों को चुप होने पर मजबूर कर दिया।

Thursday, November 1, 2007

क्या ये उचित है?

राज्यसभा में विपक्ष के नेता जसवतं सिंह जैसे वरिष्ठ राजनीतिज्ञ द्वारा अपने पैतृक गाँव जसोल में अफीम की मनुहार करना क्या उचित है? एक तरफ आप एक प्रबुद्ध नागरिक होते हैं ,दूसरे सक्रिय राजनीति में होने पर समाज के प्रति उनकी जवाबदेही बनती है। समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिये प्रतिबद्ध होने की ना कि उसकी जगह रीतिरिवाज की दुहाई देकर दूषित परिपाटी का निर्वाह करने की। ये क्या उचित है?

मारवाड क्षेत्र की परम्परा है कि जन्म,परण या मरण जैसे मौकों पर ,शरीक होने वाले लोगों से अफीम की मनुहार करीं जाती है। ये किसी जमाने में काफी लोकप्रिय और सम्मानीय परम्परा मानी जाती थी। कहा जाता था कि यदि किसी शत्रु ने अफीम की मनुहार स्वीकार कर ली तो दुश्मनी उसी क्षण से समाप्त हो जाती थी। मगर ये तो बीते दिनों की बात हुई।

अफीम मनुहार के कई दुष्परिणाम भी सामने आये। आयोजनों में मनुहार करीं गई अफीम को चखते-चखते कब लोग इसके गुलाम बन जाते हैं -इसका अहसास तब होता है जब आदी व्यक्ति अपने घरबार ,जमीन आदि को बेच कर भी अपनी जरुरतों को पुरा करता है। भीलवाडा क्षेत्र में नशा मुक्ति केन्द्र में आने वालों में बडी संख्या ग्रामीण स्तर से आने वाले अफीम के आदी लोगों की होती है।

कानूनन अफीम रखना और उसकी मनुहार करना अवैद्य है।एनडीपीसी एक्ट के तहत इसमें सजा का भी प्रावधान है।लेकिन जब हमारे नेता ही कानून की धज्जियाँ उडाते है तो और किसी का क्या कहना।

Monday, October 29, 2007

करवाँचौथ

हमारा पहला करवाँचौथ एक आयोजन जैसा था ।दो महीने पहले से मम्मी की खतो-कितावत शुरु हो गई थी।मजमून रहता था एक ही आपके यहाँ क्या रस्में होती है?कितनी साडी लानी है ,कितने करवें लाने है? कब आना होगा वगैरह वगैरह।
मुझे जरुर कुछ अजीब सा लगता था। सीधे-सादे तरीके से मम्मी को व्रत करते देखा है बस ।जब-तब मौका पाकर अपनी मम्मी को घुडकी मारती थी -आपको क्या जरुरत है ? क्यों पूछती हो ? जो करना होगा वो ये लोग करेंगें करवाँचौथ तो ससुराल की होती है। मम्मी समझाती ये सब शगुन होते हैं ।पीहर वालों को करने ही होते हैं।पर मन मानने को तैयार नहीं होता था।
खैर करवाँचौथ से एक दिन पहले मम्मी ढेर सारे सामान के साथ आयी ।मम्मी को देखकर खुशी हुई और सामान को देखकर कोफ्त । कोई तुक समझ नहीं आ रहा था ।मम्मी हमारे स्वभाव को जानती थी अतः पूरे समय समझाती रही कि जो भी चीज है उसका अभी होना क्यों आवश्यक हैं।शायद तब भी बात हमारे गले नीचे नहीं उतरी थी। रात में मम्मी (सासु मां) ने पूछा तुम किस तरह का व्रत करोगी ? पानी पियोगी या नहीं ? "आप जैसा कहें" भई हम तो पानी भी नहीं पीते है साल में एक बार तो सुहाग के लिये व्रत करतें हैं ।आगे तुम्हारी इच्छा वो बोलीं।'मैं भी नहीं पीऊंगी' सुनकर वो बडी सन्तुष्ट हुई। आदेश दिया कि सुबह चार बजे जागकर नीचे आ जाना। अच्छा, मरे से स्वर में हम बोले थे नींद और वो भी सुबह की बडी प्रिय थी हमें और उतना ही अप्रिय आदेश लगा था।सुबह एकाएक भडभड कि आवाज सुनकर चौंककर जागे देखा तो मम्मी हमें जगाने आयी थी खैर अनमने मन से उठ कर आये तो पाया बहुत सारी खाने की चीजें सजायी हुई थी ,चाय भी तैयार थी।बडी झुंझलाहट हुई कि सिर्फ इसलिये जगा दिया।"मन नही हो रहा "बोला तो मम्मी बोली शगुन होता है मुंह तो झूठारना होगा ।जैसे -तैसे कुछ निगला और ढेर सारा पानी पिया।मम्मी बोली जाऔ अब सो जाऔ।तब मम्मी बडी अच्छी लगी।
सुबह से घर में उत्सव का सा माहौल था।मौका पकर पतिदेव ने फर्माया "चुपचाप पानी पिलो"किसी को भी पता नहीं चलेगा।नहीं जैसा व्रत लिया है वैसा ही करेंगें।किस के लिये कर रही हो व्रत मेरे लिये ना,फिर भी कहना नहीं मानती।अब वो भी तरह-तरह के हथकंडे अपना रहें थे। क्या दकियानुसी बातें करती हो लोग चाँद पर पहुंच गये हैं. पर ये हैं कि वक्त के साथ बदलना ही नहीं चाहती ।जब नानस्टाप भाषण शुरु हुये तो हमने आवाज़ लगायी मम्मी देखिये और ये उझल कर भागते नजर आये।
दिन में हाथों में मेंहंदी लगायी गई,पैरों में आलता, नये कपडे और नई चुडियाँ ,ढेर सारे गहने ,माँग आगे से पीछे तक भरी हुई।शाम को मनीष जब घर लौटे तो हमको देखकर भौंचक "तुमसे मना नहीं किया गया मेंहंदी के लिये , थोडा सिन्दुर क्यों छोड दिया वो भी लगा लेती,कार्टुन बनने का शौक है तुम्हें" ये चिढे हुये स्वर में बोले ।मैं रुआंसी सी समझ नहीं आता था क्या करूं । किसकी बात मानूं किसकी नहीं। कोई एक तो नाराज होगा ही ना।
उस दिन मम्मी ने तरह-तरह के खाने की चीजें बनाई।अंधेरा होते ही ननद और देवर को बारी-बारी से छत पर भेजा जाने लगा।थोडी देर बाद सारी पूजा की सामग्री के साथ सभी छत पर थे। करवाँचौथ पर कैसा चौकपूरा जाता है ये मम्मी ने बताया ।पूजा करीं अब बारी थी चन्द्रमा को अर्ध्य देने की ।इन्तजार कुछ लम्बा और लगभग असहय हो रहा था।मनीष हमारी हालत से नावाकिफ ना थे। अब चंद्रमा को देखने की कमान उन्होंने संभाली।बंदर की तरह छज्जे को पकडकर उपर वाली छत पर चढे ।निकल आया चांद ,चलो जल्दी से अर्ध्य दो ये बोले।
मैं और मम्मी आँखे फाडे असफल चेष्टा कर रहे थे। थोडी देर में चाँद दिख ही गया और पूजा पूरी करी गई।बारी-बारी से घर के बुजुर्गों के पैर छू कर सदा सुहागिन होने और पूतने फलने का आशीर्वाद लिया गया। तभी मम्मी ने बोला अपने पति के पैर छुऒ ।एक बार लगा गलत सुन लिया है।क्यों? उनके दोबारा कहने पर अनायास पूछ ही लिया।पति का पद हमेशा बढा होता है।अब तक रहा -सहा धैर्य जवाब दे चुका था ।ये भी कोई बात हुई क्या मम्मी हम बराबर के हैं -मैं बोली। ऐसा कभी होता है क्या मम्मी, हम बचपन से साथ खेलें हैं। कितनी बार तो पिटायी करी है इनकी। देखिये आपके कहने से सब कुछ तो बदल लिया नाम भी नहीं लेती हूं अब तो । अभी तक दूर खडे ये बातों का मज़ा ले रहे थे। बोले छूऒ ना। मम्मी का कहना भी नहीं मानोगी।कभी कहना मानने पर भुनभनाहट सुनती हूँ और अभी कहना ना मानने की दुहाई।क्या करूं कुछ समझ नहीं आ रहा था। खैर काफी ना -नुकर के बाद जब पैर छुने झुकी तो ये भाग लिये।तब जा कर राहत की साँस ली वरना थोडी ही देर में हमने ना जाने क्या-क्या सोच लिया था।
अब बारी थी व्रत खोलने की अति उत्साह में मम्मी ने सब कुछ बडे प्यार से और ठूंस-ठूंस कर खिलाया पूरे दिन के बाद इस तरह खाने से जो पेट में दर्द उठा कि हालत खराब ।उस रात जिस तरह मनीष ने देखभाल करीं उससे में अभिभूत हो गई। आज इतने सालों बाद भी लगता है जैसे कल की ही बात थी।

Friday, October 26, 2007

मार्निंग वाक और हम

रोज आँख खुलते ही एक बहस शुरु हो जाती थी ।आलस्य त्यागों और मार्निंग वाक शुरु करो कभी आइने में खुद को निहार लिया करो। दिन दूनी रात चौगुनी फैलती जा रही हो पति देव की सुबह आजकल इन्हीं भाषण के साथ शुरु होती थी । हम भी पक्के मठ्ठूस एक कान से सुनते और दूसरे से बडी शान्ति से निकाल दिया करते।
पर आज तो अति हो गई वो तो पूरे हाथ-पैर धो कर पीछे पड गए । उठो वाक पर जाऔ . नहीं कोई बहाना नहीं आज से रोज जाना है। अरे भई , ये तो हमारी मर्जी जायें जायें ना जायें तो ना जायें। नहीं, बहुत चला ली अपनी मर्जी अब और नहीं ।जाना है, मतलब जाना है। मिसेज शर्मा को देखा तुमसे बडी हैं पर तुमसे कितनी छोटी लगती हैं ।कितना मेन्टेन किया हुआ है। ऒह ,तो अब हम तुम्हें दूसरी औरतों के सामने गये बीते लगने लगे हैं। अरे, मेरा मतलब ये तो नहीं था पतिदेव थोडा हिचकिचा गये । ये नहीं वो नहीं तो फिर क्या मतलब था ? मूहँ बिसूरते हुए बोली सीधे से बोलो ना।
अरे मैं चाहता हूँ तुम थोडी दुबली हो जाऔ बस। जब पतली थी तब प्राब्लम थी कहते थे यार थोडी सी चर्बी चढा लो,थोडी सी बोला था ये तो नहीं कहा था ना कि सारी दुनियाँ की चर्बी अपने ऊपर चढा लेना, अब हम भी पूर्ववत ढिठाई पर आते हुए बोले क्या फर्क पडा डिजिट ही तो बदले हैं पहले ३६ थे अब ६३ है बस इतना सा तो। फिर सोचो, नानी बनेंगें तो कितने ग्रेसफुल लगेंगे। आजकल की नानियों की तरह नहीं की नानी कौन सी है और मौसी कौन सी कुछ पता ही नहीं चलता।
धन्य हो पतिदेव खीझे स्वर में बोले। जैसी मर्जी करो ,कान पकडे मैंने ,अब नहीं कहूँगा आगे कभी भी घूमने जाऔ या एक्सरसाइज करो जितना चाहे खाऔ और मुटाऔ। ऒर सुन लो तुम भी आगे कभी भी कहा ना घुटने में दर्द है तब बताऊँगा।
बात इस तरह का रुप ले लेगी हमें अनुमान ना था।सोचा था थोडा तर्क-कुतर्क करके जान बचा लेंगें।पर यहाँ तो रुख ही बदल गया था। मन ही मन प्रण किया की अगली सुबह से वाक शुरु करके ही दम लेंगें।पूरी रात खुद को याद दिलाते रहें खैर सुबह उठ कर सैर पर भी गई।लेकिन दस मिनिट बाद वापिस घर पर , पतिदेव हमें जाते देख बडे सन्तुष्ट लग रहें थे लेकिन इतनी जल्दी वापिस आया देख थोडे खिन्न भी लगें। मैं धीरे से भुनभुनाई हम से अकेले नहीं घूमा जाता क्या करें? ये पुरानी आदत है तुम भी जानते हो ना।ठीक है कल से मैं भी चलुँगा तुम्हारे साथ। अगली सुबह हम से पहले उठ कर जनाब तैयार थे जैसे किसी जंग में जाना है। मन मार कर हम भी चल दियें। चलो आज एक नये गार्डन में चलते है ये बोले ।
हमारी शक्ल देख कर कोई भी जान जाता जैसे बकरा हलाल करने के लिये ले जाया जा रहा हो बिल्कुल वैसी सुरत बना रखी थी। साथ चलो और थोडा तेज चलो । कैसे चलूँ ? तुम तो लम्बे हो मैं नहीं चल सकती इतनी तेज। कोशिश तो करो ये थोडे खीझे स्वर में बोले। थोडी देर तो हमने कदम से कदम मिलाने की कोशिश तो करीं। फिर पीछे-पीछे पैर घसीटते हुए चल दिये। एक चक्कर पूरा करते ही धम्म से बैठ गये ।
थोडी देर बाद आस-पास नजर दौडाई तो पाया हमारे जैसे सेहतमन्द लोगों की कमी नहीं है।देख कर थोडी तसल्ली हुई। कुछ ही दूरी पर कुछ बाबा रामदेव जी की चेलियाँ बडे ही अजीबोगरीब व हास्यास्पद तरीके से योगा कर रही थी। देख कर अच्छा लगा। कुछ युवाऒं की टोली भी थी जो आइपाड पर जोर-जोर से "धूम मचा ले धूम" सुनते हुए जागिंग कर रही थी। तब तक पतिदेव आ गये कैसा लगा? आते ही प्रश्न उछाल दिया। "ठीक"। कल भी आना है।
हमें अब यहां वाक पर आते हुए लगभग पंद्रह दिन हो गये है कुछ सहेलियां भी बन गई हैं ।एक राज की बात है हमने भी छाँट-छाँट कर अपने से ज्यादा मोटी महिलाऒं से दोस्ती करीं है जब हम अपनी सहेलियों के साथ पतिदेव के सामने से निकलते हैं तो बडी शान से निकलते हैं देखो हमें कितने फिट हैं ।आज तो हद हो गई जब घर लौटते वक्त उन्होनें भरपूर नजर डाल कर कहा तुम्हारी थोडी चर्बी तो कम हुई यहाँ आने से। हाँ और मन ही मन मुस्कुरा उठे ।जानते हैं क्यों ? हमारी चाल जो कामयाब रही। अगर आपसे मोटे लोग इर्द-र्गिद हो तो उनके समूह में शमिल हो जाइये खुद के पतले होने का अहसास हमेशा आपके पास होगा। साथ ही घर वालों को फक्र से बता सकेंगें कि आप अभी भी फिट हैं । हमारी सलाह पर अमल करके देखिये तानों से तो बचेंगें ही साथ ही तारीफ भी पायेंगें।

Friday, October 19, 2007

सर्वे या मखौल

"यत्र नारीयस्तु पुज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता"ये सूक्ति तो हमारे देश में सदियों से चली आ रही है। नारी सम्मान का महत्व और आवश्यकता सब ही जानते हैं। घर की धूरी यानि महिला।
आधुनिक परिवेश और बदलती मानसिकता कहें या विकृत मानसिकता जिसकी बानगी है -नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे ।
भारत सरकार के लोक स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय ने कुछ दिन पहले ही अपने तीसरे ऐसे सर्वे की अंतिम रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट के कुछ अंश से ये निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि 54% महिलायें पति के द्वारा पीटे जाने को उचित मानती है । क्या कोई इस बात को सर्हष मानेगा ? ये तो है एक मामूली सा नमूना है।
इस सर्वे में पूछे गये प्रश्न बेहुदगी की हद तक गिरे हुये है -उदाहरण स्वरूप -आपको सबसे पहले संबंध बनाने के लिये किसने मजबूर किया?मौजूदा पति ने ,पूर्व पति ने ? दोस्त ने?पिता ने?सौतेले पिता ने?अन्य रिश्तेदार ने?ससुर ने? शिक्षक ने?वगैरहा वगैरह।
ये तो मात्र दो सवाल है ।कल्पना करी जा सकती है कि शेष 1026 प्रश्न किस तरह के होंगे?कुछ प्रश्नों की भाषा व प्रारुप इतने निम्न कोटि के हैं कि उनका उल्लेख करना भी मुमकिन नहीं है।
यह सर्वे इस लिये किया गया ताकि इसी के आधार पर देश की स्वास्थ्य संबंधी नीतियां व बजट तय किया जायेगा। दूसरी बात की यदि इतने प्रश्न थे तो उनको पूछा भी गया था या वैसे ही खानापूर्ति कर दी गई क्योंकि किसी को भी इस प्रश्नावली का उत्तर देने में कम से कम 17 घंटे लगेगें यदि एक मिनिट भी एक प्रश्न को दिया जाये तो।
राजस्थान में सर्वे करने वाली मुख्य एजेंसी के निदेशक डा. एस. डी .गुप्ता के अनुसार प्रश्नावली "केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के पैनल ने तैयार की थी।" स्वास्थ्य विशेषग्य डा उदय पारीक के अनुसार "यह हेल्थ स्टडी का सर्वे है या सेक्सुअल बिहेवियर का"।
सर्वे एजेंसी के अनुसार सर्वे के लिये टीम लीडर और सर्वेयर को मिलाकर राजस्थान में फील्ड में 64 लोग लगाये गये थे। इन लोगो का एक दिन का खर्चा 300 रुपये था। यानि एक दिन का 19200 रुपये। चार महीने तक ये सर्वे चला था। इस तरह से सर्वे का काम करने वालों को दिये गये 23 लाख रुपये। एजेंसी के अनुसार 3892 घरों में सर्वे किया गया । यह खर्चा 11,67,600रुपये होता है।एजेंसी की फीस ,प्रदेश भर के आंकडों को मिलाकर कंपाइल कराने का खर्च अलग और अन्य खर्च अलग है।
सवाल ये है कि हकीकत में क्या हुआ ? सर्वे हुआ भी या इसका अस्तित्व सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहा दूसरे ये कि ऐसे सर्वों का औचित्य ?
दैनिक भास्कर से साभार -

Friday, October 12, 2007

क्या हुआ हमारी संवेदनाओं को ?

कुछ दिन पहले समाचार पत्र में छपे एक समाचार ने सबसे ज्यादा विचलित किया । २२ गायों को मार डाला गया वो भी इतने बर्बर तरीके से कि पढ कर खून खौल उठा।
हमारे यहां -जहां गाय को मां का दर्जा दिया गया है।जिसे पूजा जाता है उसके साथ ये सलूक ? गौ ग्रास निकालने की परम्परा आज भी कई परिवारों में है। पहली रोटी गाय के लिये बनाई जाती है और परिवार के सबसे छोटे सदस्य के हाथ से खिलवाई जाती है ताकि ये परम्परा संस्कार के रुप में पीढी दर पीढी चलती रहें।
जैसलमेर के छत्रेल गांव की ये घटना है -गायों को पहले कीटनाशक पिलाया गया, फिर ट्रेक्टर के आगे दौडा-दौडा कर मार डाला गया। गायों की खालों का अवैध धंधा करने वालों की ये कारस्तानी है अथवा गोचर भूमि पर अतिक्रमण करने वालों की अभी तक ये सुनिश्चित नहीं हो पाया है। किसी भी मूक निरीह जानवर के साथ ऐसा बर्ताव क्या अमानुषिक कृत्य नहीं है ? क्या ये सहनीय है ?आखिर कब तक यूँ ही चलता रहेगा ।

Friday, September 28, 2007

क्या था सच

वो क्या था। सच या कुछ और, आज भी सोचती हूँ तो निष्कर्ष नहीं निकाल पाती। वो दिन आज भी अच्छी तरह से याद है। 1980 की सर्दियों के दिन थे और मैं उस दिन कालेज नहीं गई थी। भैया भी समय से पहले घर आ गया था साथ में बल्लू,महेन्द्र और प्रवीण भी थे।

थोडी देर इधर-उधर की बात करने के बाद भैया एकाएक बोला "तू और कुसुम पिक्चर देख आ "। पिक्चर की बात सुनकर एक बार तो मैं खुश हुई लेकिन अगले ही पल शक का कीडा कुलबुलाया आज इतनी मेहरबानी क्यों? भैया फिर से बोला सोच ले जाना है तो बल्लू टिकिट लेकर बैठा आयेगा । नहीं मेरा मन नहीं है पता हैना आज कालेज भी नहीं गई । मेरा क्या बैठी रह फिर मत कहना ध्यान नहीं रखता।ठीक है नहीं कहूंगी ।हम दोनों अब झगडने के मूड में आ चुके थे तब तक महेन्द्र बोला "अच्छा
साधना के घर जायेगी मैं छोड देता हूँ जब बोलेगी लेने आ जाऊँगा ।अब तो शक यकीन में बदलने लगा कि चारों कुछ खिचडी पका रहें हैं तभी घर से बाहर भेजने पर आमादा हैं। अब मैं भी कमर कस चुकीं थी कि चाहे कितने प्रलोभन दे कहीं जाना नहीं हैं। अब भैया ने पैंतरा बदला बोला "हमें क्या हम तो साथ बैठ कर पढेंगें तू होती रह बोर "। मैं क्यों बोर होऊँगीं मैं भी तुम्हारे साथ पढूँगीं इसी बहाने मेरी भी पढाई हो जायेगी मैं बोली । अब तो चारों चिन्तित नजर आने लगे । सीधे-सीधे बताऔ क्या बात है । क्या-क्या बात है ? हर समय जासूसी करने पर आमादा रहती है भैया चिल्लाया। जा अन्दर हमको पढने दे बीच में आकर तंग मत करना । नहीं मैं नहीं जाऊँगी। तुम सबके साथ बैठुँगी चाहे कुछ हो। बात बढती देख अब प्रवीण बीच में बोला "तू जाना हमको पढना है।"

भैया और मेरा झगडा कोई नया नहीं था उन लोगों के लिये पर आज चारों कुछ ज्यादा ही विचलित हो रहें थे । अव्छा मुझे भी बताऔ बात क्या है वरना मम्मी को बता दूँगी कि कालेज मिस किया था तुम सबने।
ठीक है बता देंगे लेकिन किसी से कहा तो ठीक नहीं होगा। प्रामिस किसी से नहीं कहूँगी कुछ भी । आज हम आत्मा बुलायेंगें तू डरेगी और सारा काम बिगाड देगी भैया बोला। नहीं बिल्कुल नहीं डरुगीं किसी को नही बताऊँगी। आखिर में ये तय हुआ कि उनकी प्लेनिग में मुझे भी शरीक किया जायेगा । शर्त ये है कि उनका दिया हुआ काम बिना तर्क -वितर्क किये हुए करना है साथ ही किसी को नहीं बताना है कि क्या किया गया था ।

पहला ऑर्डर मिला कि कमरे में पौंछा लगाया जाये ,चुपचाप वो कर दिया फिर आदेश मिला कि दिया और अगरबत्ती जलाऔ। तब तक उन चारों ने एक चार्ट जैसा बनाया था उसे टेबिल के मध्य बिछा दिया साइड में दिया और अगरबत्ती जला दी गई।
बल्लू को कागज-पेन लेकर बिठाया गया ताकि वो सब कुछ लिख सकें। कगज के मध्य एक छोटी कटोरी थी जिस पर बाकि सबने अपनी एक-एक अंगूली रखी और आव्हान शुरु किया पवित्र आत्मा आप आइये आप आइये, यदि आप आ चुकीं हैं तो यस पर जाइये कटोरी धीरे-धीरे यस पर आ गई ।मुझे लगा ये इन सबकि शरारत है । कटोरी ये सरका रहें है । पहला प्रश्न महेन्द्र ने किया " मामा जी का मर्डर किसने ,कब ,कहाँ किया और क्या सजा होगी "। कटोरी पूर्ववत अक्षरों पर घूमती रही जिन्हें बल्लू लिखता गया । अगला प्रश्न प्रवीण ने किया "अंजू की शादी कब होगी? " तीसरा प्रश्न भैया ने किया मम्मी के स्कूल की एक टीचर ने आत्महत्या करीं थी दो दिन पूर्व तो वो किस तरह से मरीं थी जवाब मिला जल कर जबकि इस बात को सिर्फ दो जने जानते थे मैं और भाई। तो फिर इसका मतलब क्या था ?

बल्लू ने कोई भी प्रश्न पूछने से मना कर दिया साथ ही मेंने भी ।
अब फिर एक बार सम्वेत स्वर में प्रार्थना करीं कि पवित्र आत्मा आप लौट जाइये कटोरी बार-बार नो पर जा रही थी ।शुरु मैं मैंने ध्यान नहीं दिया पर जैसे ही उन चारों कि शक्ल पर नजर पडी तो पाया कि चारों पसीने-पसीने हो रहें थे और साथ ही स्वर में व्यग्रता बढती जा रही थी । काफी देर बाद कटोरी का मूवमेंट बन्द हुआ । हमेशा चहकने वाला भैया खामोश था । बहादुर बनने वाला महेन्द्र शान्त, प्रवीण डरा हुआ था ।

अब मैं भुनभुनाई, तुमको कोई और तरीका नहीं मिला था क्या डराने के लिये । तब भैया बोला पागल है - ये सब तो सच में हुआ । तुम चारों कि प्लानिंग थी मुझे डराने की ,मैं लगातार गुस्सा हुए जा रही थी । तुम लोग ही डरें मुझे तो कुछ नहीं हुआ अपने मनोभावों पर काबू करते हुए बोली।


अब बल्लू भैया से कागज लेकर हमने पढना शुरु किया ।महेन्द्र के मामा जी का मर्डर हुआ थ ये बात हममें से कोई नहीं जानता था । जो नाम बताये गये थे उन नाम के शख्स पर केस चल रहा था और ये बात सच थी महेन्द्र ने बताया । अंजू की शादी भविष्य की बात थी वक्त आने पर ही पता चलेगा । टीचर की मृत्यु का तरीका भी सही बताया गया था ।
जो कुछ अनुभव हुआ ये हकीकत थी या कोई चाल मैं अभी भी विश्वास नहीं कर पा रहीं थी ।सब एक -दुसरे से पुछ रहे थे कि "तूने पुश किया था "। जब सबने एक ही उत्तर दिया नहीं तो एक सिहरन सी दौड गई ।


कुछ महीनों के बाद महेन्द्र ने बताया कि फैसला हो गया और फैसला वो ही था जो उस दिन बताया गया था। अंजू की शादी भी पूर्व बतायी तारीख में ही तय हुई ।
अब मिला-जुली प्रतिक्रिया थी काश कुछ ऒर भी पूछा होता ।
दूसरी कि कितने गलत थे हम सब ।
हर बात को मजाक में लेना और प्रकृति के नियम में दखलन्दाजी करना वाकई गलत था ।
बात घर वालों पर खुल चुकीं थी बहुत डाँट पडी हम सबको। भविष्य के लिये समझाया गया ।

Monday, September 3, 2007

यादें

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

मुंदी पलकें बुने ख्वाब

पल-पल किया तुम्हें याद

तुम नहीं आये

यादें,बातें घेरे रही

डाल आलिंगन भीचें रहीं

पर

तुम नहीं आये

ख्वाब कतरा-कतरा

अश्क बन बह चलें

पर

तुम नहीं आये

अश्कों को,ख्वाबों को

बातों को ,यादों को

आहिस्ता से

फिर से सहेजा

नये सिरे से मुंदी पलकें

तुम आये

हाँ

तुम आये

अर्थी को मेरे कांधा देने

अब तुम हो

मगर

मैं बीती याद बन

चल पडी

अन्तहीन सफर को

अब

तुम्हारी खुली आंखों में

अश्क हैं-यादें हैं

कसक है -मलाल है

पर

अब हम नहीं

Saturday, July 28, 2007

कविता

आधुनिक जीवन शैली की देन कि आदमी भीड में भी तन्हा है-

आदमी
मैं अवसादों से घिरा एक आम आदमी
दिक-भ्रमित,विश्रान्त आदमी
अनिश्चय की साकार मूर्ति
मैं एक क्लान्त आदमी
बाहें पसारें समा लेने को सारा जग
पर पाता मृग-मरीचिका शून्य
एक बार फिर मैं असहाय आदमी
उद्वेलित, आलोडित एकाकी आदमी

Saturday, July 21, 2007

अंतर्मन

अंतर्मन




मैं नहीं चाहती मौन रहना


पर मेरी मुखरता मुझ अकेली की नहीं है,


तमाम नारियों का प्रतिनिधित्व करती हूँ।


कुछ किताबों में पढी आदर्श बातें,


चन्द भाषणों के अंश,


कुछ टिप्पणियां


और


कुछ कसकता मेरा अंतर्मन।


मैं चिल्लाना चाह कर भी मौन हूँ,


भीड में कौन सुन पायेगा,


समर्थन दे पायेगा?


मेरा अंतर्मन वाचाल है,मुखर है्।


मैं नहीं चाहती मौन रहना


पर क्या कोई इसे सुन पायेगा,


हाँ! सुनकर


सदियों से चली आ रही परम्परा का


पाठ जरुर पढायेगा।


नारी होने का अहसास जरुर करायेगा,


कुछ नहीं तो मौन रहने का भाषण जरुर दे जायेगा


नहीं चाहती मैं मौन रहना!!