गर्मियों की छुट्टियों में जब भी लखनऊ जाते थे तो पापा एक बार हमें वज़ीरगंज जरुर ले जाते थे। अपना पुराना घर दिखाने। सडक के एक ऒर खडे होकर बताते देखो वो वाला घर हमारा था। "दादी यहां बैठी रहती थी। वो ऊपर जो कमरा दिख रहा है ना वो मेरा और आनन्द का था"। उनके चेहरे पर आते -जाते भाव आज स्पष्ट महसूस होते हैं। तब ना महसूस करने की क्षमता थी ना उम्र। शायद कभी उस नज़रिये से देखा भी नहीं था।
सालों बाद जब पापा ने ट्रांसफर के बाद झालावाड में ज्वाइन किया और उसी घर में रहने गये जो पहले कभी प्रिंसीपल का बंगला था और (अब हास्टल वार्डन और वाईस-प्रिंसीपल का) पापा अपने स्कूल टाइम में वहां रह चुके थे। यादें उनकी आंखों में साफ दिखायी दे रहीं थीं।ये कमरा दादी का था। देखो, दीवार पर तभी टाइल्स से उन्होंने त्रिशूल बनवाया था। ये बाबूजी की स्टडी थी ।जहां कोई बच्चा नहीं जा सकता था। यहां जिया की बेटी रमा हुई थी। ये घासी (चपरासी) का कमरा था। वो वाला हम बाकि भाई-बहिनों का। और भी ना जाने कितनी बातें जो उनकी स्मृतियों में ताज़ा हो चुकीं थीं। तब पहली बार घर के प्रति अपनत्व की भावना पैदा हुई थी।
आज जब नयी पीढी को अपने पुश्तैनी मकान से असम्पृक्त पाती हूं तो कहीं अफसोस की भावना बलवती हो जाती है। घर से जुडाव को महज वो एक ज़िद मान कर चलते हैं। ये सही है कि आज के समय में मात्र भावुकता से काम नहीं चलता पर उसे नकारा तो नहीं जा सकता ना। भौतिकतावादी सोच में शायद ऐसी किसी भी सोच के लिये कोई ज़गह या महत्व नहीं है। पर मैं खुद घर ,उसकी चारदीवारी,अपनेपन को अहमियत देती हूं। ना जाने कितनी यादें हैं जो कहीं ना कहीं घर से जुडी होतीं हैं। पुराने घर यानि पुश्तैनी मकान में अपने बुजुर्गों की खुशबू सी आती है। कई लोग मेरी सोच से सहमत नहीं होते पर ....................
क्यों चाहते हो न करुं
मैं इनसे बात
तुम्हारे लिये हैं ये प्रस्तर खंड मात्र
पर मेरे लिये-
शैशव मे था सुखद बिछौना
बालकाल में मूक सहचरी
यौवन की मीठी धडकन से भी हैं ये वाकिफ
हमारे प्यार की प्रथम अनुभूति से भी हैं, ये अभिभूत
फिर भी तुम कहते हो
ना करूं मैं इनसे संवाद
कई बार मैं इनसे लिपट कर रोई हूं
कई बार मैं इनके सान्निध्य में खिलखिलाई हूं
और-कई बार मैं इनसे शर्माईं हूं
तुम फिर भी कहते हो
ना करूं मैं इनसे वार्तालाप
इनमें है प्रौढ स्पन्दन
जो अहसास दिलाता है
मेरे पूर्वजों का मुझसे प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष
परोक्ष-अपरोक्ष रुप से जुडे होने का
उनके सान्निध्य ,अपनेपन व संरक्षण का
फिर भी तुम कहते हो
ना करूं मैं इनसे प्रेमालाप
यहां से उठती अर्थियों को देखकर
ये भी स्तब्ध होकर
थोडी ऒर पथराई होंगीं
यहां से सजती डोलियों को देख
ये भी ह्रदय में हूक लिये
डबडबाई-सिसकी तो होंगीं
यहां सुनकर बधावे के गीत
ये भी तो हर्षाई होंगी
यहां सुनकर किलकारियों की गूंज
ये भी मुस्कुराईं तो होंगीं
बोलो -चुप क्यों हो?
क्या अब भी चाहते हो,
कहते हो
मैं न करूं इनसे बात।
5 comments:
पुरानी यादें हमेशा कसोटती हैं। और जब यादें लखनऊ से जुड़ी हो तो क्या कहने
आशीष
कई लोग मेरी सोच से सहमत नहीं होते ....
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असहमत होने का प्रश्न ही नहीँ बनता। संस्मरणात्मक स्थितियाँ और स्थान अपने आप में एक विचित्र सम्मोहन रखते हैं। शायद लेखन में भी जितना व्यक्ति अपना सीधा अनुभव लिखे उतना वह महत्वपूर्ण होगा बनिस्पत विद्वानों का लेखन कोट करने के।
आपने बहुत सटीक लिखा है।
शायद मै असहमत हूँ... क्यूँकि मै कही भी बहुत दिन नही ठहरी और मेरे अपने घर से बहुत ज्यादा मुझे लगाव नही हूआ... शायद इसलिये मुझे ऐसी किसी जगह की याद नही आती... पर आपके भाव पसन्द आये :)
पुरानी ईंटों पर समय अपनी इबारत छोड़ जाता है
और मन में लिखी ऐसी ही इबारतों को ही हम स्मृतियां कहते हैं।
मैं भी आपसे सहमत हूँ... आपने बहुत सही लिखा। घर सिर्फ ईंट सीमेन्ट से बना नहीं होता..
फिर कैसे आसानी से भूल जायें उसे?
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