Wednesday, December 17, 2008

आईना



आईना
अपनी वाणी को झोली में बांध
दुछत्ती पर चढा मैं खूश हूं
भूल चुकी कभी मैं भी
प्रतिक्रिया व्यक्त करती थी
होते देख अन्याय सुलग पडती थी
अब नजरिया बदल
हर बात में कारण खोज लेती हूं
ऐसा तो होना ही था
मान लेती हूं
गलती शायद मेरी ही है
खुद को समझा लेती हूं
कई बार आइने में
अपनी शख्सियत खोजी
एक परछाईं तो दिखती है
पर मैं कहां हूं ?
अभी तक नहीं जान पायी
तुम कहते हो शायद मैं मर चुकी
नहीं ऐसा नहीं
बिल्कुल नहीं
मैंने अपना वज़ुद खोया
पर
कितनों के चेहरे की हंसी बनी
मेरा परिचय- नारी हूं
मात्र नारी

Monday, September 29, 2008

श्राद्ध

श्राद्ध पक्ष आते ही घर में विवादों का दौर शुरू हो जाता था। मनीष ब्राह्मणों को खाना खिलाने का विरोध करते और मम्मी उनके खाने खिलाने के पक्ष में नाना तर्क दिया करती उनके अनुसार ब्राह्मणों को खिलाया गया खाना हमारे पुर्वजों को उनकी आत्मा को संतुष्टी देता है और भी कई सारे। मनीष की दलील होती थी कि जो श्रद्धा से किया जाये वही श्राद्ध। साथ ही कहते इन पंडितों को भोजन करते देख मन में वितृष्णा होती है।
बडी समस्या उनको खोज कर लाने में आती किसी के पास टाइम की कमी है तो कोई पहले से ही बुक्ड । अपने परिचितों को फोन किया जाता गली-गली भटका जाता तीन-चार दिन की भागदौड रंग लाती और कोई ना कोई मिल ही जाता। विधि-विधान से पापा धूप देते और घर की बहू होने के नाते खाना परोस कर खिलाने की जिम्मेदारी हमारी होती। बडे मानमनुहार से खाना -खिलाया जाता मम्मी अपनी तीखी नज़र बनाये रखती की कहीं कोई चूक या गुस्ताखी तो नहीं हो रही। खैर निर्विघ्न श्राद्ध समपन्न हो जाया करता ।
इस बार पापा-मम्मी श्राद्ध पक्ष में यहां नहीं हैं और श्राद्ध करने की जिम्मेदारी मनीष की थी । उन्होंने पहले ही चेता दिया था कि अगर श्राद्ध पर ब्राह्मण को खाने पर बुलाना है तो उनका कोई योगदान नहीं होगा . श्राद्ध होगा तो उनके कहे अनुसार । हमारी कुछ समझ में नहीं आ रहा था पर मन मसोस कर चुप थे। एक दिन पहले ही बता दिया गया था कि ठीक टाइम पर तैयार रहना कहीं चलना हैं । घर पर थोडी पूजा आदि करके हम लोग वृद्धाश्रम गये । ये पहला मौका था किसी वृद्धाश्रम जाने का । बहुत ही साफ-सुथरा खुला-खुला बडा सा घर । घर में घुसते ही एक दालान उसे पार करने के बाद एक चौक जिसके चारों और कमरे थे । साइड में एक बडा सा हाल जो कि मनोरंजन कक्ष था । तभी एक नोटिस बोर्ड पर नज़र पडी जिसमें लिखा गया था "आज का भोजन मनीष श्रीवास्तव की ऒर से " अब वहां आने का औचित्य समझ में आने लगा था। कुछ ही देर में सारे आश्रमवासी भोजन कक्ष में एकत्रित थे शुरू में थोडी औपचारिकता थी परिचय का दौर जल्दी ही खत्म हो गया था। तभी वहां के कर्मचारी ने बताया की यदि आप स्वयं खाना परोस कर खिलाना चाहते हैं तो सहयोग के लिये रसोईकक्ष में आ सकते हैं। हमारे साथ हमारे मित्र रेखा और वीरेन्द्र भी गये थे । सबने मिल कर खाना परोसा और खिलाया
खाने के दौरान एक बुजुर्ग आश्रमवासी भावविह्वल हो कर रोने लगे। हम चारों इस परिस्थिति के लिये तैयार नहीं थे। घर का माहौल बडा बोझिल सा हो गया था। घर का हर सदस्य अन्तर्द्वन्द से घिरा सा था। खाने के बाद जब साथ मिल कर बैठे तो किश्नलाल जी ने बताया कि चार बेटे हैं पोते-पोतिया हैं यहां तक की परपोते हैं। घर के पुराने सदस्यों से बात हुई तो बोले अभी इन्हें आये हुए सिर्फ एक महीना । थोडे दिन में आदत हो जायेगी।
जान कर आश्चर्य हुआ कि ज्यादातर लोगों का भरापूरा घर था। मन में एक सवाल बार-बार उठ रहा था कि आखिर चूक कहां हो रही है? हमारे जीवनमूल्य क्या इतने थोथे हैं कि जिनकी उंगली पकड कर हमने चलना सीखा आज उनसे ही बेजार है।क्यों अपनों से मुंह मोड रहें हैं ? बातों ही बातों में एक अम्मा जी ने बताया कि वो कहां रहती थी क्या करती थी मनीष बोले हां मैं जानता हूं। इतना सुनते ही अम्मा जी का चेहरा एकदम फक था अगले ही पल वो घिघिया उठी बेटा किसी से कहना नहीं मोहल्ले वालों को बोला है कि इन्दौर भाई के घर जा रहीं हूं। मैं हैरान थी की ये अपने उन बेटों की इज्जत बचाने के लिये घिघिया रहीं हैं जिन्होंने उन्हे असहाय सा घर से निकाल दिया। रिश्तों के कई रूप बातों -बातों में सामने आ रहे थे। कुछ चाह कर भी बात नहीं करना चाह रहे थे ।
एक बुजुर्ग बोले क्या मतलब बिटिया आज तुम सब आये हो रोज थोडे ही कोई आता है। वैसे रहना तो अपने हाल ही में है ना। एक जोगिया कुर्ते वाले बाबा जी हम सबसे बेखबर होने का असफल नाटक कर रहे थे। वो लगातार अपना मुहं और डबडबाई आंखें एक किताब में गडाये थे। एक वैरागी भी थे जिन्होने सारी जिन्दगी एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर तक पदयात्रा करते हुये गुजार दी। अब टूटे हुए पैर के साथ वहां हैं । उन्हें अपनी जिन्दगी से कोई मलाल नहीं बात -बात में कबीर के दोहे सुनाना उनकी आदत में है। अलमस्त फक्कड से शायद सबसे ज्यादा वही सुखी थे।
कई बार खुद की आंखे भर-भर आयी । उन लोगों की मनःस्थिति का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कैमरा देखते ही वो अपना मुंह छुपाने लगे । शायद छोटी जगह और किसी के द्वारा खुद को पहचान लिये जाने का भय उन्हें सता रहा था। एकाएक हमें अपनी गलती का अहसास हुआ और कैमरा वापिस बैग के हवाले किया। ये बात भी कुछ अजीब सी लगी कि वो लोग उन अपनों को बेइज्जत होने से बचाना चाहते हैं जिन्होने उन्हें बेघर कर दिया। बातों ही बातों में कितना समय निकल गया पता ही नहीं चला। जब सबसे दुबारा आने का वादा करके चले तो मन भारी था पर कई आश्रमवासियों के चेहरे पर सुकून की मुस्कुराहट थी। आज वाकई श्राद्ध का यह अनूठा तरीका मन में श्रद्धा भर गया।

Wednesday, May 14, 2008

गुलाबी शहर और आतंक का मंज़र

कल शाम से मन उदास है। बदलती फिज़ा शायद अहसास दिला रही है कि बहुत कुछ बदल गया और उतनी ही तेजी से बदलता जा रहा है। मुठ्ठी से दरकती रेत की मानिंद ।

"पधारो म्हारे देस" की गुहार लगाने वाला गुलाबी नगर कल लाल रंग से रंग दिया गया। महज आतंक फैलाने के लिये। ये सब करके क्या हासिल करना चाहते हैं ? बेगुनाहों के मौत का मंजर क्या विचलित नहीं करता। जैसे ही सिलसिलेवार विस्फोटों की खबर सुनी । एकबारगी तो विशवास नहीं हुआ फिर अगले पल शुरू हुआ फोन करने का क्रम सबसे पहले अपनी बेटी को फोन करके पूछा कहां हो? सुरक्षित है जान कर सांस में सांस आयी फिर अपने नजदीकी रिश्तेदारों को।

नज़रें टीवी पर चिपकी हुई । विचलित और हतप्रभ से हम सब । ना जाने कितने विचार ,आक्रोश और मन में ढेर सा असन्तोष। कौन जिम्मेदार है हमारी नीतियां, हमारा कानून ,नेता या सत्ता की लोलुपता आखिर कौन ? एक के बाद एक सुनियोजित हमले और उनको रोकने में विफल हमारा तंत्र । ये सिर्फ जयपुर पर हुए हमले की बात नहीं है । हर वो जगह जहां इस तरह के हादसे हुये हैं और ना जाने कितने बेगुनाह मारे गये हैं। लचर कानून की आड व लम्बी कानूनी प्रक्रिया शायद आतंकियों के हौसलें बुलन्द किये हुये है। कुछ भी हो ऐसे हादसों की पुनरावृति रोकने के लिये यदि बर्बर कानून बना लेने चाहिये ताकि कोई भी इस तरह की घटना को अंजाम देने से पहले सौ बार सोचे।

हर बार खून के इस मंज़र को देख कर मन खून के आंसू रोता है । आखिर कब तक ? उनका क्या जिन्होनें अपने लोग खोये हैं। वाकई अभी भी विचलित हूं। एक असाहयता का भाव हावी होता जा रहा है। हम मूक दर्शक बने सब देखते हैं , सहते हैं पर करते कुछ नहीं। काश इन सबको समय रहते नियंत्रित कर लिया जाये । अन्त में उन सब हताहतों को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि ।

Wednesday, March 12, 2008

हां,मैं नारी हूं




नारी, तुम नारी हो
सब कहते रहे
मैं लडती रही
जूझती रही
सब कुछ बदला
पर मुझे लेकर
मानसिकता नहीं
अब मैं थक चुकीं हूं
आक्षेपों से
अवहेलनाऒं से
हां! मैं नारी हूं
सिर्फ नारी


Saturday, March 8, 2008

सिर्फ बातों से क्या होगा

विश्वमहिला दिवस के रुप में फिर आ गया ८ मार्च। सही मानिये सिर्फ रुप में ही है। मुझे समझ में नहीं आता कि क्या आवश्यकता है किसी भी अवसर या मौके को दिवस के रुप में मनाने का । आखिर औचित्य क्या है? महिलायें जैसी पहले थी वैसी अब भी हैं। उनकी सामजिक स्थिति और उनके दायरें वो सब भी पहले जैसे ही हैं।

बात चाहे जननी बनने की हो या पुत्री जनने की यहां भी वो मोहताज है दूसरों के निर्णय को मानने के लिये। माना बच्चे का आगमन संयुक्त प्रयास है पर गर्भ धारण तो महिला ही करती है ना पूरे नौ महीने। फिर ये अधिकार उसे क्यों नहीं कि- लडका हो या लडकी संतति उसकी अपनी है।ये उसका अपना निर्णय होना चाहिये ना कि वो उसे दुनिया में लाये अथवा नहीं।


अखबार व न्यूज़ चैनल में आज भी महिला प्रताडना,बलात्कार व शोषण की खबरें आम हैं। क्या फर्क पडता है? ये तो रोज़ होता है। फिर आज ही क्यों इसकी चिन्ता। इसमें नया भी क्या है।"विश्व महिला दिवस " घोषित करने मात्र से ये सब रुक जायेगा? खत्म हो जायेगा? नहीं ना जब तक विचारों में परिवर्तन नहीं आयेगा तब तक परिवर्तन सिर्फ आकडों में ही रहेगा।


शक्ति ,शक्ति होकर भी निःशक्त है। क्यों है भई? किसने कहा? क्यों सहती है? ना जाने कितने सवाल उठ खडे होतें हैं इन बातों से। परम्परा, मानसिकता,रूढियां व अन्ततः स्वभाव उसे ऐसा बना देता है। जो पीढी दर पीढी देखती चली आ रही है ,उसे परम्परा रुप में निर्वाह करती है। कई बार हालात से विचलित होकर रास्ते व सोच बदले भी हैं। पर मन के किसी कोने में मलाल भी रहा है।यही सहनशक्ति उसकी ताकत है कमजोरी नहीं। इसी स्वभाव की वजह से वो धुरी है सृटि की।


ग्रामीण अचंलों में आज भी अधिकांश महिलायें घर,खेत,पशुपालन में बराबर की सहभागिता रखती हैं। पर फिर भी वो आर्थिक रुप से विपन्न और आश्रित हैं साथ ही प्रताडित भी। अन्धविश्वास की सूली पर वही चढायी जाती है कभी डायन बता कर तो कभी चुडैल बता कर। हकीकत की सतह पर देखिये तो हम ,हमारे प्रयास और हमारी योजनायें ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं।


दिवस मनाने की जगह जरुरत है -संवेदनशील और जागरुक बनने की बनाने की। संगदिल बन कर खूब रह लिये। अब आवश्यकता है विस्तार की सोच में ,कार्यकलापों में। अवसर दीजिये महिलाऒं को मानसिक स्वावलंबन का। निर्णय शक्ति दीजिये उन के हाथों में फिर देखिये बदलाव का दौर। बात यहां आम महिला की है जो ग्रामीण व पिछडे क्षेत्र की है। बातों में भाषणों में उन्हें अधिकार तो दे दिये जाते हैं पर निर्णय लेने की क्षमता व सोच पर से जब तक अंकुश नहीं हटायेंगें तब तक विकास अवरुद्ध ही रहेगा।


विकास चाहे घर का हो या समाज का । ये प्रभावित होता रहेगा जब तक कि महिलाऒं का आनुपातिक प्रतिनिधित्व हिस्सेदारी व सक्रियता उसमें नहीं होगी तब तक। महिलाऒं की साझेदारी के बिना किसी भी क्षेत्र का काम व विकास बाधित होगा, प्रभावित होगा। साथ ही "विश्व महिला दिवस" को तभी "मखौल दिवस" बनने से बचाया जा सकता है।

Friday, March 7, 2008

आज भी शर्मिन्दा हूं मां

आज कैंसर से जुझ रही और उससे उबर चुकी महिलाऒं का इन्टरव्यू देखा। कई बार ज़ेहन में मां आपका अक्स उभरा। कई बार आंखें नम हुई।नये सिरे से आपकी साहसिक ,एकाकी और जुझारु छवि से रुबरु हुई। मन के किसी कोने में पश्चाताप भी है और दुख भी। जब भी खुद को आप से तुलनात्मक रुप में देखती हूं तो शर्म आती है। आपके तो पासंग भी नहीं होते हम लोग। ना जाने कितने संस्मरण है जो आपकी छवि को थोडा और महान बना देते हैं हमारी नज़रों में। वैसे देखा जाये तो बिल्कुल मामूली आम भारतीय महिला सी हैं आप। लेकिन फिर भी भीड में आप अलग सी हैं।

पापा की असामयिक मृत्यु से स्तब्ध और विचलित हम। आप मन ही मन हम सबसे ज्यादा टूटी और बिखरी हुई। भावनात्मक अंतर्द्वन्द से घिरी हुई ।पर हमें देखकर आप अपने मनोभावों को छिपाकर हमारा संबल बन जाती थी। पापा के जाने के बाद हमारी मित्र मंडली की स्थायी सदस्य हो गईं थी आप। चाहे दोस्तों या मंगेतर के साथ मूवी जाना हो या पिकनिक आप हमारे साथ होतीं थीं। ना कभी हमें आपकी उपस्थिति अखरी ना हमारे दोस्तों को क्योंकि आप इतनी सहज रहती थी कि कभी कोई दुराव या छिपाव रहा ही नहीं आपसे। हर तरह की बातें आपके सामने होती ।शरारतें होती पर आप तटस्थ बनीं रहती। शायद यही आपकी खूबी थी।

बिना बोले आप हमारे सुख-दुख ,हमारी जरुरतें समझ जाती थी। और जुट जाती थी प्राणप्रण से उसे पूरा करने। कभी आपने दबाव में आकर समझौते नहीं किये। कितनी भी विषम परिस्थितियां बनीं ,आपने उनका मुंहतोड मुकाबला किया। आपके लिये चिरप्रतिक्षित समय था हम दोनों भाई-बहिन की शादी का। हर काम ,हर व्यवस्था खुद अकेले संभाले हुये थीं। यहीं वो समय था जब आपका स्वास्थ्य गिर रहा था सबने सोचा चिन्ता,अकेलापन काम की अधिकता इसका कारण है। पिछले एक महीने से लगातार बुखार बना हुआ था। आपने जब डॉ. को दिखाया तो खुद ही मर्ज भी बता दिया कि कैंसर है। ये सुनकर सब हंस पडे थे, पर आप गम्भीर थी। " पारिवारिक है ये मर्ज" ऐसा बता कर आप चुप हो गयी। हम सब चाहते थे कि एक बार आप अच्छी तरह से पूरा चेकअप करा लें । पर आपने शादी से पहले ऐसा कुछ भी कराने से मना कर दिया। शादी भी शन्ति पूर्वक सान्नद हो गईं। पर आप फिर नौकरी से छुट्टी ना मिलने की बात कह कर टाल गईं। तीन महीने बाद आप अकेले ही जयपुर अपना चेकअप कराने गईं तो डॉ. ने साथ किसी को लेकर आने की सलाह दी। और आप हंस दी थी कि जरुरत नहीं है। पर डॉ की खास हिदायत पर अंकल को लेकर आप गईं। बायप्सी हुई उसकी रिपोर्ट आयी डॉ ने कैंसर बताया तो आप उतने ही शान्त स्वर में बोली जानती हूं,पता था ये तो। जल्द से जल्द ऑपरेशन कराना होगा सुनकर आपने डॉ से मोहलत मांगीं की एक ही भाई है।उसकी शादी नहीं हुई है,मैं ही सबसे बडी और सब काम करने वाली हूं। अपना वो काम भी पूरा कर लूं फिर ऑपरेशन कराऊंगी। डॉ ने समझाया कि ये जानलेवा हो सकता है पर आप टस से मस नहीं हुई। खैर मामा की शादी निपट गई। जून मध्य का समय हो गया आप फिर से डॉ से मिली की अब ऑपरेशन की तारीख दे दीजिये। उन्होनें पूछा कोई और काम रह तो नहीं गया याद कर लीजिये। आप धीमे से मुस्कुरा पडी नहीं अब कुछ नहीं रहा। तारीख तय होने के बाद मैं ,मनीष ,भैया और भाभी पहुंच गयें । हर बार की तरह अब भी आप हमारे आंसु पौंछ रही थी समझा रही थी-"कुछ नहीं होगा भगवान पर भरोसा रखो"।

ऑपरेशन से जाने से पहले आप जुटीं हुईं थी अपना उपन्यास पूरा करने में। हम सब एक-दुसरे से मुंह छुपाते हुये बहादुर होने का दिखावा कर रहे थे। ऑपरेशन सफल रहा डॉ ने बुला कर बताया कि कैंसर बुरी तरह फैल चुका है। लास्ट स्टेज़ है। सुनकर कलेजा मुंह को आ गया। हम दोनों भाई-बहिन बस रोये जा रहे थे। जब एक-एक को मिलने की परमिशन मिली तो सबसे पहले भैया गया फिर मैं आपने जब बताया कि आपको ऑपरेशन के बीच में ही होश आ गया था और सारा दर्द आपने अनुभव किया तो हम सिहर उठ थे। डॉ क्या-क्या बात कर रहे थे आपने ये तक बताया। डाक्टर्स को लगा कि ये बात कहीं तूल ना पकड ले तो उन्होने आपसे बात करी। हमेशा की तरह आपने उन्हें भी आश्वस्त कर दिया कि बेफिक्र रहिये। एक तरफ का ब्रेस्ट पूरी तरह से हटा दिया गया था। बगल के नीचे के हिस्से को भी काफी हद तक हटा दिया गया था।

काटेज वार्ड में आप शिफ्ट कर दी गईं । २-३ दिन के बाद से आप अपनी सामान्य दिनचर्या पर आ गई तो हमने राहत की सांस ली। हम जानते थे इतनी तकलीफ के बाद भी आप हमारे लिये सहज बनी हुई डॉ आपके मनोबल से प्रभावित थे। आपके टांके कटे नहीं थे,घाव अभी भी गहरा था फिर अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद सब अपने काम में व्यस्त हो गये।

अब इलाज का दूसरा दौर था थैरेपी का पर आपने उससे हमें दूर रखा। भैय्या कब तक अकेले छुट्टी लेगा ,परेशान होगा ये सोच कर खुद अकेले ही स्कूल से कीमो थैरेपी करवाने पहुंच जाती उसके बाद अंकल को फोन करके घर छोडने के लिये कहती। आपकी दिनचर्या और जिन्दादिली को देख कर कोई आपकी बीमारी का अन्दाजा भी नहीं लगा पाता था। फोन थे नहीं और आप लेटर में कभी अपने स्वास्थ्य के बारें में नहीं लिखती। हर बार एक बात जरुर लिखती "मैं ठीक हूं, चिन्ता मत करना"।--

जिन्दगी अपनी रफ्तार से चल रही थी तीन साल गुजर गये इस बीच आप दादी और नानी बन गई.आप एक बार फिर कैंसर की चपेट में थी इस बार लंग्स और बोन में फैला था। फिर वही लम्बी इलाज प्रक्रिया थैरेपी वगैरह। पर आपने हम लोगो को महसूस नहीं होने दिया की कोई बडी बात हो गयी है। हम सब आपके आश्वासन और बातों में वाकई भूल चुके थे कि आप किस दौर से गुजर रहीं हैं।आपका हौसला ,अदम्य इच्छाशक्ति और जीजिविषा से आप डाक्टर के लिये और हम सबके लिये एक रोल मॉडल बन चुकी थी।

मां अब लगता है सबके होते हुये भी आप अकेली थी अपनी लडाई में। हम अपनी नई-नई गृहस्थी,नये दायित्व व नये रिश्तों को निभाने की कोशिश में लगे थे। कई बार आपको पापा की कमी लगी होगी। वो भावनात्मक सम्बल चाहिये था जो शायद हम नहीं दे पाये।या हमने उस दृष्टिकोण से तो सोचा ही नहीं कि आपको भी किसी की कमी महसूस हो सकती है। हम सिर्फ आपको मां समझ कर व्यवहार करते रहे।ये भूल गये कि आपका अपना वज़ूद है,जरुरतें ,इच्छायें और अपेक्षायें भी होंगी।

मां शायद आपके सामने कभी इतनी इतनी बेबाकी से नहीं कह पाती ।पर जानती हो मां, मैं बहुत खुशकिस्मत हूं कि मैं आपकी बेटी हूं। थोडी शर्मिन्दा भी हूं क्योंकि मैं उम्र के उस दौर में आपकी भावनात्मक जरुरतों को नहीं समझ पायी थी।

Thursday, February 14, 2008

जिभिया चटापट होइबे , हम खइबे जलेबिया

आज सुबह से ही फोन पर फोन आ रहे थे। बधाई देने के लिये। अरे-अरे हंसिये मत इसका वेलेंन्टाइन डे से कुछ लेना-देना नहीं। आज दिन है हमारी शादी की २३वीं सालगिरह का । शादी की याद आते ही उससे जुडी तमाम यादें,बातें ज़ेहन में घूम जाती है। कुछ खट्टी कुछ मीठी।

शादी के कुछ महीने पहले मम्मी यानि (सास)का पत्र आया।मजमून कुछ इस तरह था-अनु रानी हमारे यहां नई दुल्हन से गाना गवाया जाता है। ये एक रस्म है इसलिये गाना अभी से सीख लेना। पत्र पढते ही दिमाग भन्ना गया। हम तो गलती से घरवालों की उपस्थिति में बाथरुम में भी नहीं गुनगुनाते फिर यहां तो सबके सामने गाने की बात है। मम्मी समझा-समझा कर परेशान कि संगीत स्कूल चली जाऒ। जब भी मम्मी समझाने की कोशिश करती मैं कूद कर इस बात पर आ जाती कि -" लडकी हूं ना इसलिये ये सब दादागिरी। मैं जैसी हूं उसमें क्या? आप मनीष को क्यों नहीं कहती कि हमारे यहां भी रस्में होती हैं और उसे भी करनी पडेगी। वो मानेगा क्या?" ऒर भी ढेर सारे ऊल-जलूल तर्क-कुतर्क करती।

ये सिलसिला और लडाई कई दिनों चली। मेरी खास सहेली साधना इन सब बातों की चश्मदीद थी। उस दिन वो बिना बोले साइकिल लेकर चल दी। थोडी देर बाद एक मध्यवय के सज्जन के साथ हारमोनियम लिये हाजिर। ये है ,इसे सीखाना है। मैं इस अप्रत्याशित हरकत के लिये तैयार नहीं थी। खैर इधर-उधर की बातों के बाद उन्होनें गाने को कहा-ज़िद या संकोच कि गले से आवाज़ निकलने को तैयार नहीं। तीन-चार दिन की समझाइश के बाद एक फिल्मी गाना गुनगुनाया । लय-ताल , सुर सब बेताल ये दीगर बात की अभी तक उनसे दोस्ती नहीं हो पाई।

रहीम सर हमारी आवाज़ से खासे प्रभावित गिरते -पडते बस एक गाना वो सिखा पाये"आज खेलो श्याम संग होरी पिचकारी रंग भरी केसर की"इस गाने में गले को अच्छी खासी मशक्कत करानी पडती थी। भैया की शादी हमसे तीन-चार दिन पहले हुई थी। भाभी से जब गाने को कहा गया तो बिना एक सैंकंड गवाये दनादन ढोलक को थाप दे दे गाना सुनाया "मेरी नई -नई सासों के नखरे नये,बागों में जाये तो माली मटके" जब डांस की फरमाइश हुई तो एक की जगह तीन-चार गानों पर नाच कर दिखा दिया। नेग चार हुये ,सारे रिश्तेदार खुश सुघड बहू आई है।

अब मम्मी की वक्र दृष्टि हम पर थी। कि हम ना जाने क्या गुल खिलायेंगें अपनी ससुराल में।आखिरी पांच दिन में अब नये सिरे से गाना चुना गया-"जिभिया चटापट हुइबे ऒ हम खइबे जलेबिया ,सासु को दइबे बियाज में हम खइबे जलेबिया। ऐसे एक-एक करके सारे रिशतेदारों को ब्याज में दे देना था। जब भी गाने की कोशिश करते बराबर के भाई-बहिन टांग खिंचाई शुरु कर देते। देखो कितनी चटोरी है। दूसरा बोलता अरे किसी को मत छोडना उठा-उठा कर ब्याज में देते रहना एक-एक को। हम शादी को इन्जाय करने की बजाय पूरे समय आशंकित थे कि तब क्या होगा।

शादी के बाद की वो घडी भी आ गई -गोल घेरा बना कर सारे रिश्तेदार इर्द-गिर्द उत्सुकता के साथ कुछ अच्छा सा सुनने की उम्मीद लगाये एक-टक देख रहे थे। ऐन मौके पर हिम्मत जवाब दे गई। आवाज़ साथ देने को तैयार नहीं। हमारे मौन को मम्मी अपनी अवमानना मान कर नाराज़ सी लग रही थी। मनीष शुरु में मज़ा ले रहे थे,पर बाद में उनकी आंखों में हमारे लिये दया स्पष्ट दिख रही थी। पापा ने बात सम्भाली चलो छोडो अब तो ये यहीं है फिर कभी सुन लेना। लेकिन बुआ जी वगैरह छोडने के मूड में कतई नहीं थी। इस ना-नुकर के बीच कई धैर्यहीन श्रोतागण खिसक लिये। ये देख हमने राहत की सांस ली कि चलो कम लोगो के सामने मखौल उडेगा और फिर गाना सुना ही दिया। सब बडे खुश थे कि शगुन पूरा हुआ। मम्मी भी अब प्रसन्न थी बाद में बोली "तुम बेकार डर रही थी"।अब लगता है कि ये रस्में बडे सोच-समझ कर बनायीं गईं हैं कि नई दुल्हन नये परिवेश में सबसे घुल-मिल जाये और उसकी झिझक भी कम हो जाये

Wednesday, February 13, 2008

नन्हीं बडी हो गयी

कृति का फोन था खुशी से लरजती आवाज़ "मां इन्फोसिस में मेरा सलेक्शन हो गया"सुन कर राहत की सांस ली। भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि उसका आत्मविश्वास डिगा नहीं। पहली बार में असफलता हाथ आने पर निराशा की भावना बलवती हो जाती। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।


पिछले दो दिनों से उसे लेकर बेहद परेशान थी। परीक्षा के तीन दिन बाद ही कैम्पस सलेक्शन के लिये इन्फोसिस आ रही है। मानसिक रुप से कोई भी इतनी जल्दी इन्फोसिस के लिये तैयार नहीं था। पर उसके लिये कुछ नहीं किया जा सकता था। कृति बी टेक थर्ड इयर की छात्रा है। उसका 11 को एप्टीट्यूड का टेस्ट हुआ। शाम तक रिजल्ट आना था। फिर कटलिस्ट बन कर इन्टरव्यू होना था। एप्टीट्यूड टेस्ट देते ही फोन आया। मां पेपर अच्छा नहीं हुआ । मेरा क्या होगा? मैंने उतने ही शान्त स्वर में कहा कोई बात नहीं दूसरी कम्पनी भी तो आयेंगी उसमें ज्यादा मेहनत करके देना। बस सुनते ही बिफर गयी "जानती हो ,ऐसे मौके मुशकिल से मिलते हैं"। जितना गुबार ,दुख,आक्रोश वो निकाल सकती थी वो निकाला हमेशा की तरह मां थी ना सुनने के लिये। उसकी पुरानी आदत है-परेशान होगी तो तुरन्त फोन करके बतायेगी। समझाऔ तो लडेगी पर फिर थोडी देर में फोन करके सॉरी बोलेगी तरह -तरह से मनायेगी कि आपको नहीं कहूंगी या आपसे नहीं लडूंगी तो किसको कहूंगी बोलो मां। मैं इन्तज़ार करती रही पर फोन नहीं आया। शाम को फोन आया सॉरी मां परेशान थी टेस्ट क्लियर हो गया मां अब थोडी देर बाद इन्टरव्यू है । हो तो जायेगा ना मां। हां बोलो मां। "हां हो जायेगा - पर तुम अनावश्यक दिमाग पर बोझ मत लो अपनी तरफ से पूरा प्रयास करो। क्या होगा वो मत सोचो अभी। ऐसा कहीं होता है क्या मां? अच्छा पहले फ्री हो जाऒ फिर बात करते हैं। रात नौ बजे उसने बताया कि इन्टरव्यू हो गया पर कुछ कहा नहीं जा सकता। उसकी आवाज़ साफ बता रही थी कि वो बेहद परेशान है। अब मेरी बारी थी समझाने की। "देखो जो होगा अच्छे के लिये होगा चिन्ता मत करो। नहीं होगा तो सोचो कोई ज्यादा अच्छा मौका मिलने वाला है"। जाऒ घर जाकर अब रेस्ट करो पूरा दिन हो गया। ठीक है और बात खत्म । सुबह में पूरी तरह से जागी भी नहीं थी की कृति का फोन- मां हो जायेगा ना? हां बोलो मां। मैं उसकी आवाज़ की व्याकुलता से भीग सी गई- हां हो जायेगा बेटू टेन्शन क्यों करती हो। अच्छा, आज इतनी सुबह कैसे जागी? नींद नहीं आयी मां। कालेज भी जाना है आज दूसरे कालेज भी जाना है वहां भी कम्पनी आयी है। जाऊं या नहीं? ये तो तुम्हें सोचना है। ठीक है मां। दिन भर थोडी-थोडी देर बाद फोन आते रहे। "हां बोलो मां' बस एक ये ही बात।


कृति शुरु से ऐसी ही है। छोटी थी तो चिपकु बच्चा थी। सामने दिखती रहती तो खेलती ना पा कर पूरा घर सिर पर उठा लेती। कभी-कभी शाम को गोदी में बैठ कर मेरे दोनों हाथ पकड कर बैठ जाती आज मेरी मम्मी काम नहीं करेगी। मैं शर्म से पानी-पानी कि घर वाले क्या सोचेंगें। अम्मा से फर्माइश होती- हलवा बनाऔ, फिर पूरी कढाई पर कब्जा जमा कर बैठ जाती कि बस मैं और मम्मी खायेंगें। नहाने जाती तो बाथरुम के बाहर डेरा डाल कर बैठ जाती। हां इति के होने के बाद थोडा परिवर्तन जरुर आया। धीरे-धीरे जिम्मेदारी का भाव भी आता गया घर से बाहर निकलने पर आत्मविश्वास भी बडा।


दिल के गवाक्ष खुले हैं और यादों की मंजूषा भी। फिर से फोन की घंटी बज रही है। अब तफ्सील से हर बात बतायी जायेगी । आज अहसास हुआ कि बच्चे बडे हो गये हैं । वक्त ना जाने कैसे इतनी तेजी से गुजर गया पता ही नहीं चला।

Monday, January 28, 2008

उड़ता मखौल और चूं न करते लोग

कल कहीं टी वी पर हिन्दी का मखौल उडाया जा रहा था तो कहीं उसके साहित्य सृजन से जुडे लोगों का । कान ऐसे पकडिये या वैसे बात तो एक ही है ना। कब तक हिंदी के साथ अपनी ही धरती पर दोयम दर्जे का व्यवहार होता रहेगा और कब तक इसे सहना होगा। मौका था "जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल" का। चर्चा थी "राजस्थानी लोक साहित्य" पर ।


कार्यक्रम अलग-अलग दौर ,विषय और समय सीमा में विभाजित था।राजस्थानी लोक साहित्य पर चर्चा करने के लिये दो मशहूर राजस्थानी लेखक श्रीलाल मोहता और चंद्रप्रकाश जी देवल अपने निर्धारित समय पर उपस्थित थे। पर पहले से चल रही अंग्रेजी प्रकाशकों की वार्ता और चर्चा का दौर चल रहा था जिसके फलस्वरुप राजस्थानी लोक साहित्य पर चर्चा का दौर निर्धारित समय पर शुरु ना होकर कुछ विलम्ब से शुरु हुआ।

चर्चा परवान चढ़ रही थी कि तभी आयोजन से जुडी अंग्रेजी की चर्चित उपन्यासकार नमिता गोखले ने समय सीमा का हवाला दे कर दोनों को अपमानित किया और उन पर जमकर बरसीं ।साथ ही उन्हें बिना चर्चा को समाप्त किये मंच से उतर आने पर विवश किया। यदि वो समय की इतनी ही पाबन्द थी तो पूर्व में चल रही वार्ता में उन्होंने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया था। फिर उस पर नमिता के इस कथन ने किसी और को ना सही पर मुझे आहत किया कि "ये हिन्दी -राजस्थानी वाले तो माइक से चिपक जाते हैं। इन्हें चुप कराना बडा मुश्किल है। अंग्रेजी वाले इस मामले में आर्गेनाइज्ड रहते हैं। वे समय पर बात खत्म कर देते हैं।बीच में टोके जाने पर बुरा नहीं मानते"। उसके बाद का बडबोलापन यह,उन्होने दावा किया कि वो कई बार हिंदी लेखकों को स्टेज से उतार चुकीं हैं।

समाजसेवी स्वामी हग्निवेश और चित्रा मुदगल भी वहां उपस्थित थी, साथ ही इस बात पर चित्रा जी ने कहा भी" अंग्रेजी के लिये तो बडा सभागार रखा गया पर हिन्दी और राजस्थानी के लिये उपेक्षित सा ये कोना दिया गया"।

भाषा का और उससे जुडे लोगो का इससे ज्यादा क्या अपमान होगा? धिक्कार है उन पर जो ऐसे आयोजनों में मौजूद तो रहते हैं पर विरोध तक नही कर सकते। धिक्कार है हम पर भी जो मूक दर्शक बने सहते रहते हैं। जब तक ऐसे बर्तावों की खिलाफत नहीं की जायेगी तब तक बारम्बार इसी तरह होता रहेगा। अपने ही लोगों के हाथों अपनी अस्मिता पर आंच आते देखते रहेंगें और यूं ही मखौल उडवाते रहेंगें।


पूरी जानकारी के लिए दैनिक भास्कर की इस खबर को पढ़ा जा सकता है।

Saturday, January 26, 2008

गणतंत्र दिवस- दिल से या रस्म अदायगी.......

झंडारोहण के बाद कुछ देर पहले ही फैक्ट्री से लौटे हैं।दिल कुछ भारी सा है। आज गौर किया तो महसूस हुआ कि झंडारोहण के बाद राष्ट्रीयगान वाले सिर्फ कुछ ही लोग थे। मज़दूर महिलाऒं की बात छोड दी जाये क्योंकि अधिकांश अंगूठा छाप हैं। लेकिन बाकि लोगों की बात करें तो ? हम में से कितने है जो ऐसे समारोह में शिरकत करते हैं ।या साल में कितनी बार राष्ट्रगान गाते हैं। मैंने खुद याद करने की कोशिश करी तो याद आया पिछली बार पन्द्रह अगस्त को गाया था। गाया या बुदबुदाया ................ अगली बार शायद फिर स्वतंत्रता दिवस को ही गुनगुनाऊंगी।
उत्साह जैसे लाख चाह कर भी नहीं महसूस हो रहा है। वो रोमांच कहां गया जब बचपन में दस-पन्द्रह दिन पहले से गणतंत्र दिवस की बाट जोहते थे।अपने स्खूल में सिखाई गई ड्रिल को मोहल्ले को बच्चों को इक्ठ्ठा करके सिखाते थे।जब कोई नहीं मिलता तो दोनों भाई-बहिन एक-दूसरे की सशर्त ड्रिल देखते थे।परेडग्राउंड में पापा को यूनीफार्म में देख हम दोनों गर्व से इतराते थे। सहपाठियों की काना-फूसी और प्रश्न बार-बार आते-"तेरे पापा पुलिस में हैं क्या'?बाल सुलभ बुद्धि से तत्परता से जवाब देती -"नहीं, उससे भी बडे हैं। पता है- एन सी सी ऑफीसर हैं"।
वो भी याद है रिदम बिगडते ही लेझीम की हाथ पर चोट तडपा गई थी। पर सर ने कहा था- सबसे अच्छी ड्रिल हमारी होनी चाहिये ।इसलिये आंखों में आंसू भरकर भी बिना रुके करते गई थी।वो दिन भी याद है जब गणतंत्र दिवस को भय्या और मैं पिटे थे।साल में दो बार-पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को मम्मी स्कूल सफेद सिल्क की साडी जिसका एक अंगूल का लाल पाट था पहन कर जाती थी।उस दिन भी उन्होंने वो साडी निकाली पर बार्डर गायब। मां को समझ नहीं आ रहा था कि ये वो ही साडी है या कोई ऒर । अगर वही है तो बार्डर कहा गया? तभी भैया से चिढी हुई मैंने पोल खोल दी कि इसने लाल पाट को फाडकर पतंग की पूंछ बना ली थी। दूर से भैया चिल्लाया "झूठ्ठी तेरी पतंग की भी तूने पूंछ बनायी थी"। हां, पर फाडी तो तेने थी ना। इतरा तो तू रही थी देख कैसी-मेचिंग-मेचिंग पूंछ है। मां का गुस्सा सातवें आसमान पर था और अगले ही पल हमारे लाल-लाल गाल।
खैर गणतंत्र दिवस बीत रहा है।आज जो गाने सूने है अब अगली बार पन्द्रह अगस्त को सुनने को मिलेंगें। मैं अभी भी असमंजस से घिरी उस उत्साह और रोमांच की तलाश में हूं जो राष्ट्रीय पर्व को लेकर होना चाहिये।

Thursday, January 24, 2008

पालतु रखिये- तनाव मुक्त रहिये

पालतु रखिये- तनाव मुक्त रहिये

अवसाद मुक्त रहना हे तो कोई भी पशु पालिये। जी हाँ अचूक इलाज़ है अकेलेपन का भी और अवसाद का भी। मैंने अपने बचपन से इनका संग पाया है। बच्चों के हास्टल जाने के बाद तो इनका संग अपरिहार्य हो गया है। बडी बेटी जब आज से ४ साल पहले हास्टल गयी तो पास में इति थी छोटी बेटी। सूनापन मन के आंगन में पसरा पर उससे उबर गयी।

जब इति के हास्टल जाने की बारी आई तो अपने अकेलेपन के बारें में सोच-सोच कर कलेजा मुहं को आने लगता था। सबके सामने बहादुर बनी मैं अकेले में ना जाने कितनी बार अपने आंसू पौंछती थी। वो दिन भी आ गया जब खुद उसे छोडने गयी। चलते वक्त बरबस आंखें भर आयी। रास्ता पूरा मौन पर रोते हुये गुज़रा। मैं रो-धोकर जी हल्का कर लेती थी पर मनीष एक-चुप हज़ार चुप थे। घर जहां ५-६ लोग हमेशा होते थे अब हम दो। वाकई घर का सूनापन दिल के खालीपन को और बडा देता था।

मम्मी-पापा इति के जाने के पहले ही हैदराबाद जा चुके थे ।अपने छोटे बेटे के पास कुछ दिन रहने के लिये। मनीष हमेशा की तरह अपने काम पर जा चुके थे।मैं अकेली सुस्त बीमार सी चुपचाप पडी थी। सैमी( हमारी पालतु कुतिया) कई बार पास आकर उठाने की चेष्टा कर चुकी थी। तीन-चार दिन ऐसे ही निकले फिर सैमी ने खुब तंग करना शुरु किया। मेरे मुहं ढक कर लेटते ही कूं कूं करके रोना शुरु। मैं अपना दुख भूल कर जानने की कोशिश करती कि आखिर हुआ क्या है? थोडी-थोडी देर में ज़िद की बाहर घूमाने ले जाऔ। घूम कर आती तो एक-टक निहारती। जब मैं व्यस्त होती तो कोई बात नहीं ।पर खाली बैठते ही उसकी फर्माइश शुरु हो जाती।कुछ खाने को दो या खेलो। मनीष से वो थोडा डरती थी। पर इन तीन-चार दिनों में एक परिवर्तन मैंने महसूस किया । उनके आते ही दौड लगा कर जाती और पैरों में लौट लगाती । अपनी ऒर से उसका भरसक प्रयत्न होता की हम दोनों उससे खेलें या बातें करें। कुल मिला कर उसको हमारा चुपचाप उदास बैठना पसंद ना था।ये बात अब हम भी समझ रहे थे कि वो ये सब हमारे लिये कर रही है। पूरे समय हम दोनों की गतिविधियों पर नज़र रखती और ज़रा सा भी परेशान देखते ही गोदी में आ चढती। बातें वो सब समझती थी कोई गलती करती और शाम को मैं मनीष को बताती तो उसकी चापलूसी शुरू हो जाती कि मत बताऒ। संध्या को पूजा में दीपक जलाने जाती तो बीच पूजा में आकर गोदी में बैठना होता था। ये भी एक तरह की ज़िद थी। जब मम्मी घर में होती तो वो ना पूजा और ना रसोई में जाती थी। पर अब सिर चढे, चिपकू बच्चा बन कर मम्मी यानि मेरे पीछे घूमना होता था। पापा के साथ रात को खाना होता था चाहे मन ना हो रोटी निगलनी पड रही हो पर उसने अपना खाने का समय हमारे साथ का कर लिया था। शाम को मनीष कुछ हल्का-फुल्का खाते हैं। तो उस समय भी मनीष के हाथ से खाना है। कभी-कभी काजू खाने की फर्माइश होती थी। अब तो मनीष भी उसकी हर जरुरत ,पसन्द -नापसन्द को जान चुके हैं। सैमी को मनीष के साथ कार में घूमने जाना बहुत पसन्द था। खिडकी से मुंह निकाल कर ऐसे इतराती जैसे सबको बताना चाहती हो देखो ,मुझे देखो, अपने पापा के साथ घूमने आयी हूं। रेस्टोरेंट में आइसक्रीम खाना भी खूब पसन्द था। बडी तमीज़ से अलग कुर्सी पर बैठाया जाता । पेपर नेपकिन नीचे लगा कर चम्मच से आइसक्रीम खिलायी जाती । इतनी अदा से खाती की सब आस-पास वाले उसे निहारते और शायद ये बात वो जानती थी और उसे ऐसे मौकों पर मज़ा आता था। छोटे बच्चे उसे सख्त नापसन्द थे क्योंकि उनके आने से उसका गोदी में बैठ पाना मुमकिन नहीं होता था।बच्चे जब हास्टल से घर आते तो दो-चार दिन उसे अच्छा लगता ।फिर बच्चों से शुरु होती उसके अपने अधिकारों की लडाई। खासतौर पर मुझे लेकर । जब दोनों बेटियां गलबैंया डाल कर इधर-उधर लेटती तो वो बौखला जाती ।इति अक्सर उसको चिढाकर बोलती देख मेरी मम्मी और फिर दिखा-दिखाकर प्यार करती कुछ पल अपलक देखती और छलांग लगा कर मेरे ऊपर चढ बैठती फिर बडे गर्व से उन दोनों को देखती जैसे कह रही हो देख लो ये मेरी मम्मी हैं बस मेरी।


उसकी इन छोटी-छोटी हरकतों ने ,प्यार ने हमें अपने अकेलेपन और उदासी से निकलने में बडी मदद करी। सही मानिये इनका साथ आप में नई स्फूर्ति पैदा करगा। कई रिसर्च ने भी इस बात पर सहमती जताई है कि पालतु जानवर का साथ आपके तनाव को कम करता है और आत्मविश्वास को बढाता है। फिर देरी किस बात की आप भी आज़मा कर देखिये।

Monday, January 14, 2008

होना इन्सपायर्ड युवाओं का

नये साल पर सब लोग नये-नये रिज़ाल्यूशन्स लेते है। पर हमारे संजीत भाई ने शुभ दिन चुना अपने जन्मदिन का । हमने भी मुबारकबाद दी बातों-बातों में पुछा तो पता चला कि इस बार का उनका रिज़ाल्यूशन्स’ है कि अपनी "हाथ अगरबत्ती पैर मोमबत्ती "वाली छवि से मुक्ति पायी जाये।

हमने पूछा -भई सोचा तो ठीक ही है तो इरादा क्या है? । थोडी देर मौन रहने के बाद कुछ झिझकते हुये -भाईजान ने फरमाया कि सोचा है योगा शुरू किया जाये। गुड, आइडिया तो अच्छा है। ज़नाब हौले से मुस्कुराये। कहीं कोई कैम्प ज्वाइन करना है क्या ? हमने प्रश्न दागा । बोले नहीं एक दोस्त बाहर से आने वाला है उससे सीडी मंगवाई है।

योगा ...................... सीडी........... बाहर से ............... हमारे कान कुछ खडे हुये।बिना मौका दिये तत्काल पूछा वो शिल्पाशेट्टी वाली। अरे ,आपको कैसे पता? भैया उम्र का तकाज़ा है। इतना अनुभव तो हो चुका कि उडती चिडिया के पर गिन सके। हमने भी तीन दिन तक इंडिया टीवी पर दिखाई जाने वाली सुगठित देह-यष्टि ,सधी हुई मुद्रा ,श्वसन-प्रश्वसन ,प्राणायाम करती शिल्पाशेट्टी की योगा गुरु वाली सीडी की क्लीपिंग्स बिना पलक झपकाये बडे मंत्र-मुग्ध भाव से देखी थी। जब हमारा ये हाल था तो फिर संजीत का क्या हुआ होगा सहज अन्दाज़ा लगा सकते हैं। फिर संजीत ने जो रिज़ाल्यूशन्स लिया कोई ऐसे ही तो लिया नहीं होगा।

क्यों भई ,हम गलत थोडे ही कह रहें हैं। संजीत जैसे ना जाने कितने युवा इस सीडी से इन्सपायर्ड होंगें, आप अन्दाज़ा लगा ही सकते हैं।एक समय था जब बाबारामदेव योग क्रांति लाये थे । अब युवा दिल ,हर दिल अज़ीज़ शिल्पाशेट्टी नये रूप में हैं। साधुवाद , चलिये कोई तो कारण मिला हमारे युवा लोगों को इन्सपायर्ड होने का।

Tuesday, January 8, 2008

मिलेगा ऐसा कोई कभी?

डॉ गरिमा तिवारी जिनसे परिचय तो हुआ था हिन्दयुग्म की प्रतियोगिता जीतने के बाद मेडिटेशन सीखने के दौरान ।लेकिन कब धीरे-धीरे उसने अपने लिये दिल में जगह बना ली कि पता ही नहीं चला । वो "मै और कुछ नही…" और "जीवन ऊर्जा" नाम से ब्लॉग लिखती है। उसकी इच्छा थी कि यह पोस्ट हम अपने ब्लॉग पर दें तो उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए हम उसकी पोस्ट यहां डाल रहे हैं------



मिलेगा ऐसा कोई कभी?

कुछ दिनो पहले एक सहेली का रिश्ता आया था, उसे लोग देखने आये तो वो मुझे भी अपने साथ होने को बोली.... ऐसे माहौल पर मै हमेशा से जाने से कतराती हूँ, पर कोटा की एकमात्र हम उम्र महिला सहेली ने निवेदन किया तो टाला भी नही जा सकता था... उस दिन मै पुरे दिन उसके साथ रही... यहाँ तक की ब्युटीपार्लर तक जाना पड़ा साथ साथ (सबसे खतरनाक जगह), खैर मै उसका बनना सवरना देख रही थी, बीच बीच मे आँटी जी( उसकी मम्मी) नसीहते देना भी सुन रही थी, देख बेटी, सबके सामने आँखे झुका के बाते करना, जो कोई कुछ पुछे आराम से जवाब देना, तु कुछ मत पुछना.... वगैरह वगैरह... तभी अंकल जी ने कहा... और अपने लड़को जैसे दोस्तो को सामने मत लाना... और अपनी बहादूरी का बखान मत करना... सभ्य शालीन बनकर सामने आना... वगैरह वगैरह।

अब ये सारी बाते उबकाई लाने के लिये बहुत लग रही थी... मै वहाँ से खिसकने के बहाने बना रही थी... लेकिन सहेली जी हैं कि बस... अंत तक उसे मेरी हालत पर तरस आ गया और मुझे निकलने की इजाजत दे दी एक शर्त के साथ की मै उसके दुसरे सहेली को साथ लेकर दुबारा 4 बजे आऊँगी... मुझे क्या चाहिये था.. खिसकने का बहाना... लेकिन ये क्या दुबारा आना... खैर मैने हाँ बोला और साँस लेने निकल पड़ी।

मै सोच रही थी कि कोई बहाना कर लूँ, पर वक्त पर उसकी सहेली आ गयी, और मरती क्या ना करती कबुतरखाने मे मुझे जाना ही पड़ा... वहाँ पहूँचे तो सब तैयार था... मेरी सहेली ने देखती ही इशारा किया (लेट क्यूँ किया?) वैसे जवाब वो जानती थी, मुझे कुछ कहना नही पड़ा... वैसे भी शायद मै बोल नही पाती..उन लोगो की बाते हो रही थी... बाते क्या सिर्फ सवाल... और सहेली कुछ सीमित शब्दो मे जवाब दिये जा रही थी। मै सोच रही थी मेरी शेरनी को क्या हुआ??? मेरी जिन्दगी मे यह पहला अनुभव इस तरह का.... वैसे टी वी सीरीयल मे कभी कभार देखा है या किसी से सुना है पर आँखो देखा अजीब लग रहा था...।

भईया मेरी स्थिती को भाँप गये (सहेली के बड़े भाई), और मेरे लिये स्थिती सामान्य करने के लहजे से बोल पड़े, डॉ साहिबा जरा औरा रीडींग कर दिजिये... थोड़ा आपका मुड भी हल्का हो जायेगा, और हमे कुछ जानकारी भी मिल जायेगी.... हुह! तब से चुप बैठी थी... थैंक्स भईया बोल के एक एक की रीडींग शुरू.... लगभग सभी लोग संतुष्ट थे... तभी किसी ने पुछा.. क्यूँ बेटा तुम्हे शादी नही करनी? मैने सोचा अपना वही प्यारा सा जवाब दे दूँ "नही" ... पर मै बोली... करनी तो है.. परआँटी जी बोले कि मेरी नजर मे एक लड़का है कहो तो तुम्हारे मम्मी से बात करूँ?मैने कहा शौक से... पर मेरी कुछ शर्ते हैं, लड़का इन शर्तो पर खरा उतरता हो तो... और मेरे शर्तो कि श्रृँखला शुरू हुई---

1.लड़का बहुत लम्बा ना हो, ना ज्यादा छोटा हो... मतलब मेरे जैसा
2. मेरा हम उम्र हो
3. गुस्से वाला ना हो
4. उसे खाना बनाने आता हो
5. मेरा ऑफिस जान उसे नागवार ना हो
6. घर सम्भालने की जिम्मेदारी उसकी
7. मै कभी देर से घर वापस आऊँ तो कोई सवाल ना पुछे
8. मेरी प्राइवेसी मे ताका-झाँकी ना करे
9. मुझसे, कभी, क्यूँ इत्यादि सवाल ना करे
10. मै थकी रहूँ तो पैर भी दबाये
11. मतलब कि एक आदर्श गृहणी आजतक जो जो करती आयी है, लगभग सारे काम वो करेगा....
12. रोज रोज मेरे लिये बाजार से चॉकलेट लाये... हाँ मै चॉकलेट मे मामले मे इमानदार हूँ, वो मिल बाँट के खा लेंगे।
13. और इन सारे शर्तो मे मै अपने हिसाब से कभी भे घट बढ़ा सकती हूँ।
14. वो कभी कोई शर्त मेरे सामने ना रखे.............

अब ये सारे शर्त कोई लड़का पूरा कर सके तो जरूर बताना.... वरना जरूरत नही है। इतना कहना था कि सब ठहाके लगाकर हँस पड़े और एकमत स्वर मे बोले, ऐसा लड़का मिलना मुश्किल ही नही नामुमकिन है.....
तो बताईये है क्या कोई ऐसा......?

डॉ गरिमा तिवारी, कोटा, राजस्थान

अनछुए लम्हें

गर्मियों की छुट्टियों में जब भी लखनऊ जाते थे तो पापा एक बार हमें वज़ीरगंज जरुर ले जाते थे। अपना पुराना घर दिखाने। सडक के एक ऒर खडे होकर बताते देखो वो वाला घर हमारा था। "दादी यहां बैठी रहती थी। वो ऊपर जो कमरा दिख रहा है ना वो मेरा और आनन्द का था"। उनके चेहरे पर आते -जाते भाव आज स्पष्ट महसूस होते हैं। तब ना महसूस करने की क्षमता थी ना उम्र। शायद कभी उस नज़रिये से देखा भी नहीं था।
सालों बाद जब पापा ने ट्रांसफर के बाद झालावाड में ज्वाइन किया और उसी घर में रहने गये जो पहले कभी प्रिंसीपल का बंगला था और (अब हास्टल वार्डन और वाईस-प्रिंसीपल का) पापा अपने स्कूल टाइम में वहां रह चुके थे। यादें उनकी आंखों में साफ दिखायी दे रहीं थीं।ये कमरा दादी का था। देखो, दीवार पर तभी टाइल्स से उन्होंने त्रिशूल बनवाया था। ये बाबूजी की स्टडी थी ।जहां कोई बच्चा नहीं जा सकता था। यहां जिया की बेटी रमा हुई थी। ये घासी (चपरासी) का कमरा था। वो वाला हम बाकि भाई-बहिनों का। और भी ना जाने कितनी बातें जो उनकी स्मृतियों में ताज़ा हो चुकीं थीं। तब पहली बार घर के प्रति अपनत्व की भावना पैदा हुई थी।
आज जब नयी पीढी को अपने पुश्तैनी मकान से असम्पृक्त पाती हूं तो कहीं अफसोस की भावना बलवती हो जाती है। घर से जुडाव को महज वो एक ज़िद मान कर चलते हैं। ये सही है कि आज के समय में मात्र भावुकता से काम नहीं चलता पर उसे नकारा तो नहीं जा सकता ना। भौतिकतावादी सोच में शायद ऐसी किसी भी सोच के लिये कोई ज़गह या महत्व नहीं है। पर मैं खुद घर ,उसकी चारदीवारी,अपनेपन को अहमियत देती हूं। ना जाने कितनी यादें हैं जो कहीं ना कहीं घर से जुडी होतीं हैं। पुराने घर यानि पुश्तैनी मकान में अपने बुजुर्गों की खुशबू सी आती है। कई लोग मेरी सोच से सहमत नहीं होते पर ....................
क्यों चाहते हो न करुं
मैं इनसे बात
तुम्हारे लिये हैं ये प्रस्तर खंड मात्र
पर मेरे लिये-
शैशव मे था सुखद बिछौना
बालकाल में मूक सहचरी
यौवन की मीठी धडकन से भी हैं ये वाकिफ
हमारे प्यार की प्रथम अनुभूति से भी हैं, ये अभिभूत
फिर भी तुम कहते हो
ना करूं मैं इनसे संवाद
कई बार मैं इनसे लिपट कर रोई हूं
कई बार मैं इनके सान्निध्य में खिलखिलाई हूं
और-कई बार मैं इनसे शर्माईं हूं
तुम फिर भी कहते हो
ना करूं मैं इनसे वार्तालाप
इनमें है प्रौढ स्पन्दन
जो अहसास दिलाता है
मेरे पूर्वजों का मुझसे प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष
परोक्ष-अपरोक्ष रुप से जुडे होने का
उनके सान्निध्य ,अपनेपन व संरक्षण का
फिर भी तुम कहते हो
ना करूं मैं इनसे प्रेमालाप
यहां से उठती अर्थियों को देखकर
ये भी स्तब्ध होकर
थोडी ऒर पथराई होंगीं
यहां से सजती डोलियों को देख
ये भी ह्रदय में हूक लिये
डबडबाई-सिसकी तो होंगीं
यहां सुनकर बधावे के गीत
ये भी तो हर्षाई होंगी
यहां सुनकर किलकारियों की गूंज
ये भी मुस्कुराईं तो होंगीं
बोलो -चुप क्यों हो?
क्या अब भी चाहते हो,
कहते हो
मैं न करूं इनसे बात।

Friday, January 4, 2008

"आइये स्वागत करें ,ऐसे फैसलों का"

कुछ दिनों पहले हम रिश्तेदारी में एक जगह मिलने गये। सबसे मेल-मुलाकात हो गई उनके सुपुत्र जी नादारद थे।पता चला वीडियोगेम खेल रहें हैं । काफी बुलाने के बाद जनाब तशरीफ लाये। हाय,हैल्लो की औपचारिकता पूरी करी और फिर गायब व मशगूल अपने गेम में।
हम भी पहुंचे उत्सुकता पूर्वक देखने की आखिर ऐसा क्या है जो वो गेम से विछोह बर्दाशत नहीं कर पा रहें हैं। पीछे खडे होकर थोडा मुआयना किया तो पता चला कि कोई दो ग्रुप के मार-धाड पर आधारित खेल है। एक लडके को मिलकर तीन-चार लोग पीट रहें हैं। तभी पिटने वाले लडके के ग्रुप के सदस्य आ जाते है सब गुथम-गुथ्था। बस इससे ज्यादा हम उसे नहीं झेल पाये।
लौटते वक्त तक यहीं सोचते रहे कि रोज इसी प्रकार के खेल बच्चे की मानसिकता पर क्या असर करेंगें। बच्चों के कोमल मन पर पडने वाले प्रभाव को सोच कर हम सिहर उठे थे। सप्रयास हमने अपने को इस विचार से दूर रखने की कोशिश करी पर सफल नहीं हो पाये।
कल न्यूज़ की एक हेडलाइन ने ज़रा हमें आश्वस्त किया कि अब ज्यादा दिनों तक इस प्रकार के वीडियो गेम नहीं खेले जा सकेंगें क्योंकि अब वीडियो गेम्स पर भी सेंसरशिप लागू होगी। चलो देर आयद दुरस्त आयद, सेंसरशिप के बाद अत्यधिक खूनखराबे और सेक्स वाले कंप्यूटर गेम्स बच्चों को देखने को नहीं मिलेंगें। सूचना प्रसारण मंत्रालय के अनुसार लम्बे समय से अभिभावक ऐसे गेम्स की खिलाफत कर रहे थे।
मंत्रालय विधेयक के मसौदे पर विचार कर रहा है। विशेष वीडियो गेम के लिये बच्चों की आयु सीमा तय करी जायेगी।साथ ही यदि कोई वीडियोगेम भारतीय स्थितियों के अनुरूप नहीं है तो सेंसर बोर्ड को उसे खारिज़ करने का अधिकार भी होगा। जिस प्रकार डीवीडी कवर पर सेंसर बोर्ड का प्रमाण-पत्र दर्शाना होता है उसी प्रकार की अनिवार्यता वीडियोगेम्स के कवर पर भी होगी। सेंसर बोर्ड अध्यक्षा शर्मिला टैगोर के मुताबिक "प्रस्ताव लागू होने के बाद पालकों को खरीदे जाने वाले वीडियोगेम की पूरी पक्की जानकारी मिल सकेगी।गेम्स अनुचित सामग्री पाये जाने पर उन्हें हटा दिया जायेगा।"