Monday, September 29, 2008

श्राद्ध

श्राद्ध पक्ष आते ही घर में विवादों का दौर शुरू हो जाता था। मनीष ब्राह्मणों को खाना खिलाने का विरोध करते और मम्मी उनके खाने खिलाने के पक्ष में नाना तर्क दिया करती उनके अनुसार ब्राह्मणों को खिलाया गया खाना हमारे पुर्वजों को उनकी आत्मा को संतुष्टी देता है और भी कई सारे। मनीष की दलील होती थी कि जो श्रद्धा से किया जाये वही श्राद्ध। साथ ही कहते इन पंडितों को भोजन करते देख मन में वितृष्णा होती है।
बडी समस्या उनको खोज कर लाने में आती किसी के पास टाइम की कमी है तो कोई पहले से ही बुक्ड । अपने परिचितों को फोन किया जाता गली-गली भटका जाता तीन-चार दिन की भागदौड रंग लाती और कोई ना कोई मिल ही जाता। विधि-विधान से पापा धूप देते और घर की बहू होने के नाते खाना परोस कर खिलाने की जिम्मेदारी हमारी होती। बडे मानमनुहार से खाना -खिलाया जाता मम्मी अपनी तीखी नज़र बनाये रखती की कहीं कोई चूक या गुस्ताखी तो नहीं हो रही। खैर निर्विघ्न श्राद्ध समपन्न हो जाया करता ।
इस बार पापा-मम्मी श्राद्ध पक्ष में यहां नहीं हैं और श्राद्ध करने की जिम्मेदारी मनीष की थी । उन्होंने पहले ही चेता दिया था कि अगर श्राद्ध पर ब्राह्मण को खाने पर बुलाना है तो उनका कोई योगदान नहीं होगा . श्राद्ध होगा तो उनके कहे अनुसार । हमारी कुछ समझ में नहीं आ रहा था पर मन मसोस कर चुप थे। एक दिन पहले ही बता दिया गया था कि ठीक टाइम पर तैयार रहना कहीं चलना हैं । घर पर थोडी पूजा आदि करके हम लोग वृद्धाश्रम गये । ये पहला मौका था किसी वृद्धाश्रम जाने का । बहुत ही साफ-सुथरा खुला-खुला बडा सा घर । घर में घुसते ही एक दालान उसे पार करने के बाद एक चौक जिसके चारों और कमरे थे । साइड में एक बडा सा हाल जो कि मनोरंजन कक्ष था । तभी एक नोटिस बोर्ड पर नज़र पडी जिसमें लिखा गया था "आज का भोजन मनीष श्रीवास्तव की ऒर से " अब वहां आने का औचित्य समझ में आने लगा था। कुछ ही देर में सारे आश्रमवासी भोजन कक्ष में एकत्रित थे शुरू में थोडी औपचारिकता थी परिचय का दौर जल्दी ही खत्म हो गया था। तभी वहां के कर्मचारी ने बताया की यदि आप स्वयं खाना परोस कर खिलाना चाहते हैं तो सहयोग के लिये रसोईकक्ष में आ सकते हैं। हमारे साथ हमारे मित्र रेखा और वीरेन्द्र भी गये थे । सबने मिल कर खाना परोसा और खिलाया
खाने के दौरान एक बुजुर्ग आश्रमवासी भावविह्वल हो कर रोने लगे। हम चारों इस परिस्थिति के लिये तैयार नहीं थे। घर का माहौल बडा बोझिल सा हो गया था। घर का हर सदस्य अन्तर्द्वन्द से घिरा सा था। खाने के बाद जब साथ मिल कर बैठे तो किश्नलाल जी ने बताया कि चार बेटे हैं पोते-पोतिया हैं यहां तक की परपोते हैं। घर के पुराने सदस्यों से बात हुई तो बोले अभी इन्हें आये हुए सिर्फ एक महीना । थोडे दिन में आदत हो जायेगी।
जान कर आश्चर्य हुआ कि ज्यादातर लोगों का भरापूरा घर था। मन में एक सवाल बार-बार उठ रहा था कि आखिर चूक कहां हो रही है? हमारे जीवनमूल्य क्या इतने थोथे हैं कि जिनकी उंगली पकड कर हमने चलना सीखा आज उनसे ही बेजार है।क्यों अपनों से मुंह मोड रहें हैं ? बातों ही बातों में एक अम्मा जी ने बताया कि वो कहां रहती थी क्या करती थी मनीष बोले हां मैं जानता हूं। इतना सुनते ही अम्मा जी का चेहरा एकदम फक था अगले ही पल वो घिघिया उठी बेटा किसी से कहना नहीं मोहल्ले वालों को बोला है कि इन्दौर भाई के घर जा रहीं हूं। मैं हैरान थी की ये अपने उन बेटों की इज्जत बचाने के लिये घिघिया रहीं हैं जिन्होंने उन्हे असहाय सा घर से निकाल दिया। रिश्तों के कई रूप बातों -बातों में सामने आ रहे थे। कुछ चाह कर भी बात नहीं करना चाह रहे थे ।
एक बुजुर्ग बोले क्या मतलब बिटिया आज तुम सब आये हो रोज थोडे ही कोई आता है। वैसे रहना तो अपने हाल ही में है ना। एक जोगिया कुर्ते वाले बाबा जी हम सबसे बेखबर होने का असफल नाटक कर रहे थे। वो लगातार अपना मुहं और डबडबाई आंखें एक किताब में गडाये थे। एक वैरागी भी थे जिन्होने सारी जिन्दगी एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर तक पदयात्रा करते हुये गुजार दी। अब टूटे हुए पैर के साथ वहां हैं । उन्हें अपनी जिन्दगी से कोई मलाल नहीं बात -बात में कबीर के दोहे सुनाना उनकी आदत में है। अलमस्त फक्कड से शायद सबसे ज्यादा वही सुखी थे।
कई बार खुद की आंखे भर-भर आयी । उन लोगों की मनःस्थिति का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कैमरा देखते ही वो अपना मुंह छुपाने लगे । शायद छोटी जगह और किसी के द्वारा खुद को पहचान लिये जाने का भय उन्हें सता रहा था। एकाएक हमें अपनी गलती का अहसास हुआ और कैमरा वापिस बैग के हवाले किया। ये बात भी कुछ अजीब सी लगी कि वो लोग उन अपनों को बेइज्जत होने से बचाना चाहते हैं जिन्होने उन्हें बेघर कर दिया। बातों ही बातों में कितना समय निकल गया पता ही नहीं चला। जब सबसे दुबारा आने का वादा करके चले तो मन भारी था पर कई आश्रमवासियों के चेहरे पर सुकून की मुस्कुराहट थी। आज वाकई श्राद्ध का यह अनूठा तरीका मन में श्रद्धा भर गया।