tag:blogger.com,1999:blog-2924477864085996362023-11-16T12:18:45.533+05:30अंतर्मनमैं नहीं चाहती मौन रहना पर मेरी मुखरता मुझ अकेली की नहीं है, तमाम नारियों का प्रतिनिधित्व करती हूँanuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.comBlogger32125tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-60211899613629015022010-07-22T00:01:00.004+05:302010-07-22T00:19:14.555+05:30आखिर कब तक................सारे न्यूज़ चैनल में बडी ही सुर्खियों से महिला हाकी के शीर्ष पदाधिकारियों की कारगुजारियों का खुलासा आ रहा था। क्यों ? कब तक ? कहां तक यह शोषण चलता रहेगा मैं यह सोच-सोच कर उद्वेलित हो रही हूं।<br /> वैसे ही हमारे यहां महिला खिलाडियों की कमी है कुछ महिला खिलाडियों को छोड दिया जाये जिन्हें उनकी प्रतिभा के साथ-साथ अपने परिजनों का भरपूर सहयोग और मार्गदर्शन मिला और उन्होंने उसे सही भी साबित किया। सानिया नेहवाल हो या सानिया मिर्जा , मिताली या झूलन इन्होनें देश का नाम रोशन किया है। <br /> अगर शोषित खिलाडी हिम्मत ना दिखाती तो ना जाने कितनी अन्य युवा खिलाडी भी इस तरह की परिस्थितियों में उलझ सकती थी । विचारणीय बिन्दु यह है कि क्या इन महिला खिलाडियों की सुरक्षा व्यवस्था इतनी लचर है या कोई आचार-संहिता है ही नहीं कि जब जैसे जिसका मन हुआ उसने उसका फायदा उठाया। <br /> हमारे देश की जनसंख्या या भौगोलिकता को ध्यान में रखा जाये तो उस अनुपात में खेलों में हमारी भागीदारिता नगण्य ही है। तिस पर महिला खेलों व खिलाडियों की संख्या और भी कम है । ऐसे में इस तरह की कारगुजारियों से उभरती खेल प्रतिभाऒं का आत्म-विशवास तो डिगता है साथ ही उनके परिजनों के हौसले भी पस्त होते हैं । <br /> महिला हाकी टीम बिना किसी कोच के विदेश दौरे पर गयी है कोच की कितनी अहम भूमिका होती है उसकी जीती-जागती मिसाल मेरोडिना है जिनके मार्गदर्शन में उनकी टीम का प्रदर्शन निखरा । ऐसे में कोच के बिना गई टीम व खिलाडियों की मनःस्थिति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है इससे उनके खेल व प्रदर्शन पर प्रभाव तो पडेगा ही उनके साथ-साथ उन सभी पर भी जो उनसे परोक्ष या अपरोक्ष रुप से जुडे हुए हैं ।<br /> इस तरह की घटनायें हमेशा नकारात्मक असर ज्यादा डालती हैं जिनके दुष्परिणाम हो सकते हैं किसी उभरती खेल प्रतिभा का दमन हो जाये या उस पर इसतरह का पारिवारिक दबाव डाला जाये जिसके कारण वो हमेशा-हमेशा के लिये खेल से सन्यास ले ले।<br /> जब तक हमारे खेलों में और उनके सरपरस्त पदाधिकारियों के मध्य राजनीति के दांव-पेंच चलते रहेंगें तब तक किसी भी खेल में अपना वर्चस्व या पदक की दावेदारी खोखली ही साबित होगी । जरूरी है घटना की तह तक जा कर निष्कर्ष निकालने की और इन घटनाऒं की पुनरावृति ना हो इसके लिये सख्त कदम उठाने की ।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-30771160495453383942010-07-06T13:14:00.005+05:302010-07-06T13:47:40.061+05:30शब्द ,मैं चाहती हूं तुमसे दोस्ती करनाबिखरे हुए शब्द उलझे हुए अर्थ<br /><br />और उन सबसे झुझती मैं<br /><br /><span class="">संभाल नहीं</span> पाती<br /><br />अपनी अभिव्यक्ति के लिये<br /><br />कोई भी माध्यम<br /><br />वाणी पहले ही साथ छोड चुकी थी<br /><span class=""></span><br /><p>फिर भी<br /></p><span class="">शब्दों</span> को संजोती थी<br /><br />सजाती थी छौने की भांति<br /><br /><span class="">बदलते वक्त</span> से वो भी बेगाने हो चुके हैं<br /><br />शब्द अब अर्थों को मन्तव्य को उद्भासित नहीं करते<br /><br />मैं<br /><br />अब विचलित नहीं होती<br /><br />शब्द अब शायद तुम्हारी जरुरत<br /><br />नहीं सम्वेदना बाकी होती तो शायद तुम्हारा दामन थामती भी<br /><br /><span class="">शब्द मैं</span> तुमसे खेलना चाहती हूं<br /><br />फिर से भावों की लडियां संजोना चाहती हूं<br /><br />रूको पहले सम्वेदना जगा लूं<br /><br />फिर तुम्हारा दामन थामूंगीं<br /><br />जानती हूं जब भी मैं तुम्हें पिरोती हूं माला सा<br /><br />तो उत्साहित होती हूं बच्ची सी<br /><br />शब्द सच्ची मैं चाहती हूं तुमसे दोस्ती करनाanuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-71500572429018524572009-08-17T11:46:00.002+05:302009-08-17T12:04:38.804+05:30कॉमनवेल्थ गेम और दिल्ली - एक नजरियाकामॅनवेल्थ गेम्स के लिये तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं। बहुत सारी प्लानिंग्स और दिल्ली के सौंदर्यकरण के लिये कुछ महत्वपूर्ण कदम भी उठाये जा रहें हैं। आज की टापॅटेन खबरों में था -कि दिल्ली की झुग्गी -झोपडियों को पर्दानशीं करने की योजना। कामॅनवेल्थ गेम्स के दौरान बाहर से आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को उनके दीदार न हो इसके लिये झुग्गी -झोपडियों को बांस की खप्पचियों की चार-दीवारी से ढक दिया जायेगा ताकि उनके अस्तित्व को लेकर ,उनके जीवन-स्तर को लेकर अनावश्यक शर्मिन्दगी से बचा जा सके। <br /> <br /> क्या इस कदम का कोई औचित्य है? झुग्गी वासियों के लिये कुछ नहीं किया गया ।झुग्गी -झोपडियों के उन्मूलन के लिये कोई कदम नहीं उठाया गया बल्कि बांस की चारदीवारी से उन्हें छुपाने का अनथक प्रयास जरूर शुरू होने वाला है। इनके अस्तित्व को लेकर यदि इतनी ही परेशानी है तो झुग्गी -झोपडियों के अस्तित्व को मिटाने के लिये ,उनके उन्मूलन के लिये कोई मुहिम शुरू क्यों नहीं करी जाती ।कोई ठोस योजना को क्रियान्वित क्यों नहीं किया जाता। जब भी कोई झुग्गी कुकरमुत्ते की तरह पनपने लगती है तो उसी समय उनके रहवासियों के रहने की व्यवस्था व उनकी समस्याओं का निराकरण क्यो नहीं किया जाता।सरकार क्यों निर्धारित किराये पर इन्हें बहुमंजिला आवास उपलब्ध नहीं करा सकती?<br /><br />झुग्गी-झोपडियों में रहने वालों की अहमियत को दरकिनार नहीं किया जा सकता क्योंकि आम लोगों की रोज-मर्रा की जिन्दगी को सुचारू रूप से चलाने में इनका बहुत बडा योगदान है। कामवाली बाई,मजदूर,कारीगर भंगार वाले और भी बहुत से लोग वहीं से हैं । हम हर समस्या का निराकरण करने में सक्षम हैं पर समस्या व समाधान का राजनीतिकरण, अफसरशाही,बाबूशाही व भ्रष्टाचार किसी भी योजना को पनपने ,साकार होने व सफल होने से पहले ही दम तोडने को मजबूर कर देती है।इच्छा शक्ति की अल्पता व सहयोग की कमी भी योजना को मूर्तरूप नहीं लेने देती। इंडोनेशिया से हमें सबक लेना चाहिये-जहां झुग्गी-झोपडियों के उन्मूलन के लिये एक व्यक्ति के द्वारा शुरू किया गया प्रयास एक अभियान बन चुका है। एंडी सिसवांतों के अनथक प्रयत्न व प्रयासों को चौतरफा सहयोग मिला तो झुग्गीवासी विस्थापित होने की बजाय अपनी जमीन के मालिक बनें व उनके जीवन-स्तर में व्यापक बदलाव आया। आज इंडोनेशिया के कई शहरों में ये प्रोजेक्ट जोर-शोर से चल रहें हैं तथा सफलता प्राप्त कर रहें हैं।आज हमें भी कुछ ऐसे ही एंडीसिसवांतों की जरूरत है जो हमारे अपने लोगों के जीवन-स्तर व जीवन-यापन के तौर-तरीकों में अहम बदलाव ला सके । जरूरत है कि इन्हें मुख्यधारा में होने का अहसास कराया जा सके । भविष्य मैं हमें इन्हें छुपाने या इनको लेकर हीन -भावना से ग्रस्त होने की बजाय हमें इनके विकास के लिये ठोस कदम उठाना ही होगा।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-20452235080683220292009-03-02T14:08:00.002+05:302009-03-02T14:15:24.919+05:30देह से इतर मन-प्राण और भी है............नारी शोषण की बात कोई नयी तो नहीं है फिर भी हर बार ये कचोटती है विचलित करती है। आदिमकाल से चली आ रही शोषण की व्यथा व कथा आज भी कायम है। कभी प्रतिशोध के तहत उसे रौंदा गया तो कभी जश्न कै बतौर भोगा गया। लेकिन शोषित तो एक वर्ग ही रहा ना। अफसोस तब और अधिक होता है जब बदलते परिवेश व अधिकार की दुहाई दी जाती है। लेकिन उस सबके बावज़ूद आज भी आदिम परम्परा के रुप में नारी को ही शोषण का केन्द्रबिन्दु बना दिया जाता है। आदिवासी कबिलों की बात तो दीगर ये सब मुख्यधारा में रहने वाली नारी के साथ हो रहा है। कार्यक्षेत्र हो या स्कूल या कालेज हर बार दोषी भी वही करार दी जाती है।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4Cl825cAx5n5MwXiBLfREGWIjnbfDl_osLj2V1ziBvnu9tth95St6-0a9SYBZ0ADb9SNhfeD6lrKmDU_DmGhqUX-g85ckG6UGkMLLxBDJp6dmy84n4iUNOpbENc1ISBlRK9Gj3_pccw/s1600-h/fem.jpg"><img style="margin: 0pt 10px 10px 0pt; float: left; cursor: pointer; width: 400px; height: 347px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4Cl825cAx5n5MwXiBLfREGWIjnbfDl_osLj2V1ziBvnu9tth95St6-0a9SYBZ0ADb9SNhfeD6lrKmDU_DmGhqUX-g85ckG6UGkMLLxBDJp6dmy84n4iUNOpbENc1ISBlRK9Gj3_pccw/s400/fem.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5308508591904599346" border="0" /></a><span><span>कुछ</span></span> दिन पहले महिला नक्सलवादी की एक टिप्पणी ने स्तब्ध कर दिया जिसमें उसने कहा था कि जंगल में रात के अंधेरे में उसके साथ शरीरिक सम्बन्ध बनाने वाला कौन है वो खुद भी नहीं जानती थी। समूह का कोई भी पुरूष सदस्य उनके साथ सम्बन्ध स्थापित कर सकता था और वो प्रतिवाद भी नहीं कर सकती थी। अपनी विवशता और नक्सलवाद से मोहभंग ने ही उन्हें फिर से मुख्यधारा में आने के लिये प्रेरित किया और वो आत्मसमर्पण के लिये तैयार हुईं। कुछ महिला नक्सलियों का एडस से ग्रसित होना इसका प्रमाण है।<br /><br />धौलपुर के ईनामी डकैत जगन गर्जर पर भी उसके दल की महिला सदस्यों ने भी कुछ इस तरह के आरोप लगाये हैं।<br />दल में महिलाऒं के शामिल होने की भी अपनी वजह है। अपह्रत महिला शारीरिक शोषण का शिकार बनायी जाती थी।किसी तरह वो उनके चंगुल से बच निकलती तो परिवार व समाज से बहिष्कृत कर दी जातीं।उसके बाद इन महिलाऒं के पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता और वो उस दल की सदस्या बना ली जाती। डकैतों को पनाह देने वालों को बतौर उपहार उस रात महिला सदस्य को उसके सुपुर्द कर दिया जाता है। यही नहीं दल के अन्य पुरूष सदस्यों का भी उन पर अधिकार होता है और वो किसी भी तरह की मनमानी के लिये स्वतन्त्र है।<br /><br /> इन सब घटनाऒं को देखते -सुनते हुए मन आहत है। बार-बार यही लगता है देह से इतर मन-प्राण और भी है।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-85682132450226212952008-12-17T14:23:00.002+05:302008-12-17T14:26:54.678+05:30आईना<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSPvECR5wT2KWnKo-AP73e-Bs3CNLwZtpOpOEDjySuH45BlfBpbaTE5ZjVqtCjQr8CSznJgFndt3jCIE2e7-AlRHZdqbIiwLcGehqv2fhfwoHi6mmqz05qxAluwP1Rb8CirbnlcJ48iw/s1600-h/International-Women-Day.jpg"><img style="margin: 0px auto 10px; display: block; text-align: center; cursor: pointer; width: 250px; height: 300px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSPvECR5wT2KWnKo-AP73e-Bs3CNLwZtpOpOEDjySuH45BlfBpbaTE5ZjVqtCjQr8CSznJgFndt3jCIE2e7-AlRHZdqbIiwLcGehqv2fhfwoHi6mmqz05qxAluwP1Rb8CirbnlcJ48iw/s320/International-Women-Day.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5280680113140628578" border="0" /></a><br /><br /><div style="text-align: center; color: rgb(153, 0, 0);"><span style="font-weight: bold;">आईना</span><br /></div><div style="text-align: center;">अपनी वाणी को झोली में बांध<br />दुछत्ती पर चढा मैं खूश हूं<br />भूल चुकी कभी मैं भी<br />प्रतिक्रिया व्यक्त करती थी<br />होते देख अन्याय सुलग पडती थी<br />अब नजरिया बदल<br />हर बात में कारण खोज लेती हूं<br />ऐसा तो होना ही था<br />मान लेती हूं<br />गलती शायद मेरी ही है<br />खुद को समझा लेती हूं<br />कई बार आइने में<br />अपनी शख्सियत खोजी<br />एक परछाईं तो दिखती है<br />पर मैं कहां हूं ?<br />अभी तक नहीं जान पायी<br />तुम कहते हो शायद मैं मर चुकी<br />नहीं ऐसा नहीं<br />बिल्कुल नहीं<br />मैंने अपना वज़ुद खोया<br />पर<br />कितनों के चेहरे की हंसी बनी<br />मेरा परिचय- नारी हूं<br />मात्र नारी </div>anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-76861903926804261622008-09-29T12:50:00.003+05:302008-09-29T13:26:33.106+05:30श्राद्ध<span class=""> श्राद्ध</span> पक्ष आते ही घर में विवादों का दौर शुरू हो जाता था। मनीष ब्राह्मणों को खाना खिलाने का विरोध करते और मम्मी उनके खाने खिलाने के पक्ष में नाना तर्क दिया करती उनके अनुसार ब्राह्मणों को खिलाया गया खाना हमारे पुर्वजों को उनकी आत्मा को संतुष्टी देता है और भी कई सारे। मनीष की दलील होती थी कि जो श्रद्धा से किया जाये वही श्राद्ध। साथ ही कहते इन पंडितों को भोजन करते देख मन में वितृष्णा होती है। <br /><span class=""> बडी</span> समस्या उनको खोज कर लाने में आती किसी के पास टाइम की कमी है तो कोई पहले से ही बुक्ड । अपने परिचितों को फोन किया जाता गली-गली भटका जाता तीन-चार दिन की भागदौड रंग लाती और कोई ना कोई मिल ही जाता। विधि-विधान से पापा धूप देते और घर की बहू होने के नाते खाना परोस कर खिलाने की जिम्मेदारी हमारी होती। बडे मानमनुहार से खाना -खिलाया जाता मम्मी अपनी तीखी नज़र बनाये रखती की कहीं कोई चूक या गुस्ताखी तो नहीं हो रही। खैर निर्विघ्न श्राद्ध समपन्न हो जाया करता ।<br />इस बार पापा-मम्मी श्राद्ध पक्ष में यहां नहीं हैं और श्राद्ध करने की जिम्मेदारी मनीष की थी । उन्होंने पहले ही चेता दिया था कि अगर श्राद्ध पर ब्राह्मण को खाने पर बुलाना है तो उनका कोई योगदान नहीं होगा . श्राद्ध होगा तो उनके कहे अनुसार । हमारी कुछ समझ में नहीं आ रहा था पर मन मसोस कर चुप थे। एक दिन पहले ही बता दिया गया था कि ठीक टाइम पर तैयार रहना कहीं चलना हैं । घर पर थोडी पूजा आदि करके हम लोग वृद्धाश्रम गये । ये पहला मौका था किसी वृद्धाश्रम जाने का । बहुत ही साफ-सुथरा खुला-खुला बडा सा घर । घर में घुसते ही एक दालान उसे पार करने के बाद एक चौक जिसके चारों और कमरे थे । साइड में एक बडा सा हाल जो कि मनोरंजन कक्ष था । तभी एक नोटिस बोर्ड पर नज़र पडी जिसमें लिखा गया था "आज का भोजन मनीष श्रीवास्तव की ऒर से " अब वहां आने का औचित्य समझ में आने लगा था। कुछ ही देर में सारे आश्रमवासी भोजन कक्ष में एकत्रित थे शुरू में थोडी औपचारिकता थी परिचय का दौर जल्दी ही खत्म हो गया था। तभी वहां के कर्मचारी ने बताया की यदि आप स्वयं खाना परोस कर खिलाना चाहते हैं तो सहयोग के लिये रसोईकक्ष में आ सकते हैं। हमारे साथ हमारे मित्र रेखा और वीरेन्द्र भी गये थे । सबने मिल कर खाना परोसा और खिलाया<br /><span class=""> खाने</span> के दौरान एक बुजुर्ग आश्रमवासी भावविह्वल हो कर रोने लगे। हम चारों इस परिस्थिति के लिये तैयार नहीं थे। घर का माहौल बडा बोझिल सा हो गया था। घर का हर सदस्य अन्तर्द्वन्द से घिरा सा था। खाने के बाद जब साथ मिल कर बैठे तो किश्नलाल जी ने बताया कि चार बेटे हैं पोते-पोतिया हैं यहां तक की परपोते हैं। घर के पुराने सदस्यों से बात हुई तो बोले अभी इन्हें आये हुए सिर्फ एक महीना । थोडे दिन में आदत हो जायेगी।<br /> जान कर आश्चर्य हुआ कि ज्यादातर लोगों का भरापूरा घर था। मन में एक सवाल बार-बार उठ रहा था कि आखिर चूक कहां हो रही है? हमारे जीवनमूल्य क्या इतने थोथे हैं कि जिनकी उंगली पकड कर हमने चलना सीखा आज उनसे ही बेजार है।क्यों अपनों से मुंह मोड रहें हैं ? बातों ही बातों में एक अम्मा जी ने बताया कि वो कहां रहती थी क्या करती थी मनीष बोले हां मैं जानता हूं। इतना सुनते ही अम्मा जी का चेहरा एकदम फक था अगले ही पल वो घिघिया उठी बेटा किसी से कहना नहीं मोहल्ले वालों को बोला है कि इन्दौर भाई के घर जा रहीं हूं। मैं हैरान थी की ये अपने उन बेटों की इज्जत बचाने के लिये घिघिया रहीं हैं जिन्होंने उन्हे असहाय सा घर से निकाल दिया। रिश्तों के कई रूप बातों -बातों में सामने आ रहे थे। कुछ चाह कर भी बात नहीं करना चाह रहे थे ।<br /><span class=""> एक</span> बुजुर्ग बोले क्या मतलब बिटिया आज तुम सब आये हो रोज थोडे ही कोई आता है। वैसे रहना तो अपने हाल ही में है ना। एक जोगिया कुर्ते वाले बाबा जी हम सबसे बेखबर होने का असफल नाटक कर रहे थे। वो लगातार अपना मुहं और डबडबाई आंखें एक किताब में गडाये थे। एक वैरागी भी थे जिन्होने सारी जिन्दगी एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर तक पदयात्रा करते हुये गुजार दी। अब टूटे हुए पैर के साथ वहां हैं । उन्हें अपनी जिन्दगी से कोई मलाल नहीं बात -बात में कबीर के दोहे सुनाना उनकी आदत में है। अलमस्त फक्कड से शायद सबसे ज्यादा वही सुखी थे।<br /><span class=""> कई</span> बार खुद की आंखे भर-भर आयी । उन लोगों की मनःस्थिति का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कैमरा देखते ही वो अपना मुंह छुपाने लगे । शायद छोटी जगह और किसी के द्वारा खुद को पहचान लिये जाने का भय उन्हें सता रहा था। एकाएक हमें अपनी गलती का अहसास हुआ और कैमरा वापिस बैग के हवाले किया। ये बात भी कुछ अजीब सी लगी कि वो लोग उन अपनों को बेइज्जत होने से बचाना चाहते हैं जिन्होने उन्हें बेघर कर दिया। बातों ही बातों में कितना समय निकल गया पता ही नहीं चला। जब सबसे दुबारा आने का वादा करके चले तो मन भारी था पर कई आश्रमवासियों के चेहरे पर सुकून की मुस्कुराहट थी। आज वाकई श्राद्ध का यह अनूठा तरीका मन में श्रद्धा भर गया।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-57257912567691341222008-05-14T13:45:00.001+05:302008-05-14T14:01:28.491+05:30गुलाबी शहर और आतंक का मंज़रकल शाम से मन उदास है। बदलती फिज़ा शायद अहसास दिला रही है कि बहुत कुछ बदल गया और उतनी ही तेजी से बदलता जा रहा है। मुठ्ठी से दरकती रेत की मानिंद ।<br /><br />"पधारो म्हारे देस" की गुहार लगाने वाला गुलाबी नगर कल लाल रंग से रंग दिया गया। महज आतंक फैलाने के लिये। ये सब करके क्या हासिल करना चाहते हैं ? बेगुनाहों के मौत का मंजर क्या विचलित नहीं करता। जैसे ही सिलसिलेवार विस्फोटों की खबर सुनी । एकबारगी तो विशवास नहीं हुआ फिर अगले पल शुरू हुआ फोन करने का क्रम सबसे पहले अपनी बेटी को फोन करके पूछा कहां हो? सुरक्षित है जान कर सांस में सांस आयी फिर अपने नजदीकी रिश्तेदारों को।<br /><br />नज़रें टीवी पर चिपकी हुई । विचलित और हतप्रभ से हम सब । ना जाने कितने विचार ,आक्रोश और मन में ढेर सा असन्तोष। कौन जिम्मेदार है हमारी नीतियां, हमारा कानून ,नेता या सत्ता की लोलुपता आखिर कौन ? एक के बाद एक सुनियोजित हमले और उनको रोकने में विफल हमारा तंत्र । ये सिर्फ जयपुर पर हुए हमले की बात नहीं है । हर वो जगह जहां इस तरह के हादसे हुये हैं और ना जाने कितने बेगुनाह मारे गये हैं। लचर कानून की आड व लम्बी कानूनी प्रक्रिया शायद आतंकियों के हौसलें बुलन्द किये हुये है। कुछ भी हो ऐसे हादसों की पुनरावृति रोकने के लिये यदि बर्बर कानून बना लेने चाहिये ताकि कोई भी इस तरह की घटना को अंजाम देने से पहले सौ बार सोचे।<br /><br />हर बार खून के इस मंज़र को देख कर मन खून के आंसू रोता है । आखिर कब तक ? उनका क्या जिन्होनें अपने लोग खोये हैं। वाकई अभी भी विचलित हूं। एक असाहयता का भाव हावी होता जा रहा है। हम मूक दर्शक बने सब देखते हैं , सहते हैं पर करते कुछ नहीं। काश इन सबको समय रहते नियंत्रित कर लिया जाये । अन्त में उन सब हताहतों को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि ।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-88809202420462765022008-03-12T16:55:00.001+05:302008-03-12T16:57:44.165+05:30हां,मैं नारी हूं<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiri6GN1kE-M9IsoCpCMIgAfDRDgTq9IsLb1mObbU2Zmr1V07wtbSc_EK4ydObehuWZv-sxPxpSq_hT27es91wJB8Ck_sV2AQnLmUtrI3ts3XwBdJ_hv2H6yVA4vXMo4SnxN8JZqsFA8Q/s1600-h/female_profile_drawing.jpg"><img style="margin: 0px auto 10px; display: block; text-align: center; cursor: pointer;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiri6GN1kE-M9IsoCpCMIgAfDRDgTq9IsLb1mObbU2Zmr1V07wtbSc_EK4ydObehuWZv-sxPxpSq_hT27es91wJB8Ck_sV2AQnLmUtrI3ts3XwBdJ_hv2H6yVA4vXMo4SnxN8JZqsFA8Q/s320/female_profile_drawing.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5176815167214813922" border="0" /></a><br /><br /><br /><div style="text-align: center;"><span>नारी</span>, <span>तुम</span> <span>नारी</span> <span>हो</span><br /><span>सब</span> <span>कहते</span> <span>रहे</span><br /><span>मैं</span> <span>लडती</span> <span>रही</span><br /><span>जूझती</span> <span>रही</span><br /><span>सब</span> <span>कुछ</span> <span>बदला</span><br /><span>पर</span> <span>मुझे</span> <span>लेकर</span><br /><span>मानसिकता</span> <span>नहीं</span><br /><span>अब</span> <span>मैं</span> <span>थक</span> <span>चुकीं</span> <span>हूं</span><br /><span>आक्षेपों</span> <span>से</span><br /><span>अवहेलनाऒं</span> <span>से</span><br /><span>हां</span>! <span>मैं</span> <span>नारी</span> <span>हूं</span><br /><span>सिर्फ</span> <span>नारी<br /><br /><br /></span></div>anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com27tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-14229716994202092542008-03-08T16:52:00.002+05:302008-03-08T16:54:03.865+05:30सिर्फ बातों से क्या होगा<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhHwBq5OdUrCTR7Etsw5f3j-HZYXjVtQMuYuimvDhhGfUi_t4DvU7aHExhdpG1yhjP-ahOpOcxv6Tr_Y-6iNmUf-hjmSTxkvECAkDrMwEl-Pk8tDdSrUuqGw8p_PepWrUa0Q8DUGU3TmQ/s1600-h/International-Women-Day.jpg"><img style="margin: 0pt 10px 10px 0pt; float: left; cursor: pointer;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhHwBq5OdUrCTR7Etsw5f3j-HZYXjVtQMuYuimvDhhGfUi_t4DvU7aHExhdpG1yhjP-ahOpOcxv6Tr_Y-6iNmUf-hjmSTxkvECAkDrMwEl-Pk8tDdSrUuqGw8p_PepWrUa0Q8DUGU3TmQ/s320/International-Women-Day.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5175329894509413058" border="0" /></a>विश्वमहिला दिवस के रुप में फिर आ गया ८ मार्च। सही मानिये सिर्फ रुप में ही है। मुझे समझ में नहीं आता कि क्या आवश्यकता है किसी भी अवसर या मौके को दिवस के रुप में मनाने का । आखिर औचित्य क्या है? महिलायें जैसी पहले थी वैसी अब भी हैं। उनकी सामजिक स्थिति और उनके दायरें वो सब भी पहले जैसे ही हैं।<br /><br />बात चाहे जननी बनने की हो या पुत्री जनने की यहां भी वो मोहताज है दूसरों के निर्णय को मानने के लिये। माना बच्चे का आगमन संयुक्त प्रयास है पर गर्भ धारण तो महिला ही करती है ना पूरे नौ महीने। फिर ये अधिकार उसे क्यों नहीं कि- लडका हो या लडकी संतति उसकी अपनी है।ये उसका अपना निर्णय होना चाहिये ना कि वो उसे दुनिया में लाये अथवा नहीं।<br /><br /><br />अखबार व न्यूज़ चैनल में आज भी महिला प्रताडना,बलात्कार व शोषण की खबरें आम हैं। क्या फर्क पडता है? ये तो रोज़ होता है। फिर आज ही क्यों इसकी चिन्ता। इसमें नया भी क्या है।"विश्व महिला दिवस " घोषित करने मात्र से ये सब रुक जायेगा? खत्म हो जायेगा? नहीं ना जब तक विचारों में परिवर्तन नहीं आयेगा तब तक परिवर्तन सिर्फ आकडों में ही रहेगा।<br /><br /><br />शक्ति ,शक्ति होकर भी निःशक्त है। क्यों है भई? किसने कहा? क्यों सहती है? ना जाने कितने सवाल उठ खडे होतें हैं इन बातों से। परम्परा, मानसिकता,रूढियां व अन्ततः स्वभाव उसे ऐसा बना देता है। जो पीढी दर पीढी देखती चली आ रही है ,उसे परम्परा रुप में निर्वाह करती है। कई बार हालात से विचलित होकर रास्ते व सोच बदले भी हैं। पर मन के किसी कोने में मलाल भी रहा है।यही सहनशक्ति उसकी ताकत है कमजोरी नहीं। इसी स्वभाव की वजह से वो धुरी है सृटि की।<br /><br /><br />ग्रामीण अचंलों में आज भी अधिकांश महिलायें घर,खेत,पशुपालन में बराबर की सहभागिता रखती हैं। पर फिर भी वो आर्थिक रुप से विपन्न और आश्रित हैं साथ ही प्रताडित भी। अन्धविश्वास की सूली पर वही चढायी जाती है कभी डायन बता कर तो कभी चुडैल बता कर। हकीकत की सतह पर देखिये तो हम ,हमारे प्रयास और हमारी योजनायें ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं।<br /><br /><br />दिवस मनाने की जगह जरुरत है -संवेदनशील और जागरुक बनने की बनाने की। संगदिल बन कर खूब रह लिये। अब आवश्यकता है विस्तार की सोच में ,कार्यकलापों में। अवसर दीजिये महिलाऒं को मानसिक स्वावलंबन का। निर्णय शक्ति दीजिये उन के हाथों में फिर देखिये बदलाव का दौर। बात यहां आम महिला की है जो ग्रामीण व पिछडे क्षेत्र की है। बातों में भाषणों में उन्हें अधिकार तो दे दिये जाते हैं पर निर्णय लेने की क्षमता व सोच पर से जब तक अंकुश नहीं हटायेंगें तब तक विकास अवरुद्ध ही रहेगा।<br /><br /><br />विकास चाहे घर का हो या समाज का । ये प्रभावित होता रहेगा जब तक कि महिलाऒं का आनुपातिक प्रतिनिधित्व हिस्सेदारी व सक्रियता उसमें नहीं होगी तब तक। महिलाऒं की साझेदारी के बिना किसी भी क्षेत्र का काम व विकास बाधित होगा, प्रभावित होगा। साथ ही "विश्व महिला दिवस" को तभी "मखौल दिवस" बनने से बचाया जा सकता है।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-51865680123857790342008-03-07T16:16:00.005+05:302008-03-07T17:12:11.893+05:30आज भी शर्मिन्दा हूं मांआज कैंसर से जुझ रही और उससे उबर चुकी महिलाऒं का इन्टरव्यू देखा। कई बार ज़ेहन में मां आपका अक्स उभरा। कई बार आंखें नम हुई।नये सिरे से आपकी साहसिक ,एकाकी और जुझारु छवि से रुबरु हुई। मन के किसी कोने में पश्चाताप भी है और दुख भी। जब भी खुद को आप से तुलनात्मक रुप में देखती हूं तो शर्म आती है। आपके तो पासंग भी नहीं होते हम लोग। ना जाने कितने संस्मरण है जो आपकी छवि को थोडा और महान बना देते हैं हमारी नज़रों में। वैसे देखा जाये तो बिल्कुल मामूली आम भारतीय महिला सी हैं आप। लेकिन फिर भी भीड में आप अलग सी हैं।<br /><br /> पापा की असामयिक मृत्यु से स्तब्ध और विचलित हम। आप मन ही मन हम सबसे ज्यादा टूटी और बिखरी हुई। भावनात्मक अंतर्द्वन्द से घिरी हुई ।पर हमें देखकर आप अपने मनोभावों को छिपाकर हमारा संबल बन जाती थी। पापा के जाने के बाद हमारी मित्र मंडली की स्थायी सदस्य हो गईं थी आप। चाहे दोस्तों या मंगेतर के साथ मूवी जाना हो या पिकनिक आप हमारे साथ होतीं थीं। ना कभी हमें आपकी उपस्थिति अखरी ना हमारे दोस्तों को क्योंकि आप इतनी सहज रहती थी कि कभी कोई दुराव या छिपाव रहा ही नहीं आपसे। हर तरह की बातें आपके सामने होती ।शरारतें होती पर आप तटस्थ बनीं रहती। शायद यही आपकी खूबी थी।<br /><br /> बिना बोले आप हमारे सुख-दुख ,हमारी जरुरतें समझ जाती थी। और जुट जाती थी प्राणप्रण से उसे पूरा करने। कभी आपने दबाव में आकर समझौते नहीं किये। कितनी भी विषम परिस्थितियां बनीं ,आपने उनका मुंहतोड मुकाबला किया। आपके लिये चिरप्रतिक्षित समय था हम दोनों भाई-बहिन की शादी का। हर काम ,हर व्यवस्था खुद अकेले संभाले हुये थीं। यहीं वो समय था जब आपका स्वास्थ्य गिर रहा था सबने सोचा चिन्ता,अकेलापन काम की अधिकता इसका कारण है। पिछले एक महीने से लगातार बुखार बना हुआ था। आपने जब डॉ. को दिखाया तो खुद ही मर्ज भी बता दिया कि कैंसर है। ये सुनकर सब हंस पडे थे, पर आप गम्भीर थी। " पारिवारिक है ये मर्ज" ऐसा बता कर आप चुप हो गयी। हम सब चाहते थे कि एक बार आप अच्छी तरह से पूरा चेकअप करा लें । पर आपने शादी से पहले ऐसा कुछ भी कराने से मना कर दिया। शादी भी शन्ति पूर्वक सान्नद हो गईं। पर आप फिर नौकरी से छुट्टी ना मिलने की बात कह कर टाल गईं। तीन महीने बाद आप अकेले ही जयपुर अपना चेकअप कराने गईं तो डॉ. ने साथ किसी को लेकर आने की सलाह दी। और आप हंस दी थी कि जरुरत नहीं है। पर डॉ की खास हिदायत पर अंकल को लेकर आप गईं। बायप्सी हुई उसकी रिपोर्ट आयी डॉ ने कैंसर बताया तो आप उतने ही शान्त स्वर में बोली जानती हूं,पता था ये तो। जल्द से जल्द ऑपरेशन कराना होगा सुनकर आपने डॉ से मोहलत मांगीं की एक ही भाई है।उसकी शादी नहीं हुई है,मैं ही सबसे बडी और सब काम करने वाली हूं। अपना वो काम भी पूरा कर लूं फिर ऑपरेशन कराऊंगी। डॉ ने समझाया कि ये जानलेवा हो सकता है पर आप टस से मस नहीं हुई। खैर मामा की शादी निपट गई। जून मध्य का समय हो गया आप फिर से डॉ से मिली की अब ऑपरेशन की तारीख दे दीजिये। उन्होनें पूछा कोई और काम रह तो नहीं गया याद कर लीजिये। आप धीमे से मुस्कुरा पडी नहीं अब कुछ नहीं रहा। तारीख तय होने के बाद मैं ,मनीष ,भैया और भाभी पहुंच गयें । हर बार की तरह अब भी आप हमारे आंसु पौंछ रही थी समझा रही थी-"कुछ नहीं होगा भगवान पर भरोसा रखो"।<br /><br /> ऑपरेशन से जाने से पहले आप जुटीं हुईं थी अपना उपन्यास पूरा करने में। हम सब एक-दुसरे से मुंह छुपाते हुये बहादुर होने का दिखावा कर रहे थे। ऑपरेशन सफल रहा डॉ ने बुला कर बताया कि कैंसर बुरी तरह फैल चुका है। लास्ट स्टेज़ है। सुनकर कलेजा मुंह को आ गया। हम दोनों भाई-बहिन बस रोये जा रहे थे। जब एक-एक को मिलने की परमिशन मिली तो सबसे पहले भैया गया फिर मैं आपने जब बताया कि आपको ऑपरेशन के बीच में ही होश आ गया था और सारा दर्द आपने अनुभव किया तो हम सिहर उठ थे। डॉ क्या-क्या बात कर रहे थे आपने ये तक बताया। डाक्टर्स को लगा कि ये बात कहीं तूल ना पकड ले तो उन्होने आपसे बात करी। हमेशा की तरह आपने उन्हें भी आश्वस्त कर दिया कि बेफिक्र रहिये। एक तरफ का ब्रेस्ट पूरी तरह से हटा दिया गया था। बगल के नीचे के हिस्से को भी काफी हद तक हटा दिया गया था। <br /><span class=""></span><br />काटेज वार्ड में आप शिफ्ट कर दी गईं । २-३ दिन के बाद से आप अपनी सामान्य दिनचर्या पर आ गई तो हमने राहत की सांस ली। हम जानते थे इतनी तकलीफ के बाद भी आप हमारे लिये सहज बनी हुई डॉ आपके मनोबल से प्रभावित थे। आपके टांके कटे नहीं थे,घाव अभी भी गहरा था फिर अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद सब अपने काम में व्यस्त हो गये।<br /><span class=""></span><br />अब इलाज का दूसरा दौर था थैरेपी का पर आपने उससे हमें दूर रखा। भैय्या कब तक अकेले छुट्टी लेगा ,परेशान होगा ये सोच कर खुद अकेले ही स्कूल से कीमो थैरेपी करवाने पहुंच जाती उसके बाद अंकल को फोन करके घर छोडने के लिये कहती। आपकी दिनचर्या और जिन्दादिली को देख कर कोई आपकी बीमारी का अन्दाजा भी नहीं लगा पाता था। फोन थे नहीं और आप लेटर में कभी अपने स्वास्थ्य के बारें में नहीं लिखती। हर बार एक बात जरुर लिखती "मैं ठीक हूं, चिन्ता मत करना"।--<br /><span class=""></span><br />जिन्दगी अपनी रफ्तार से चल रही थी तीन साल गुजर गये इस बीच आप दादी और नानी बन गई.आप एक बार फिर कैंसर की चपेट में थी इस बार लंग्स और बोन में फैला था। फिर वही लम्बी इलाज प्रक्रिया थैरेपी वगैरह। पर आपने हम लोगो को महसूस नहीं होने दिया की कोई बडी बात हो गयी है। हम सब आपके आश्वासन और बातों में वाकई भूल चुके थे कि आप किस दौर से गुजर रहीं हैं।आपका हौसला ,अदम्य इच्छाशक्ति और जीजिविषा से आप डाक्टर के लिये और हम सबके लिये एक रोल मॉडल बन चुकी थी।<br /><br /> मां अब लगता है सबके होते हुये भी आप अकेली थी अपनी लडाई में। हम अपनी नई-नई गृहस्थी,नये दायित्व व नये रिश्तों को निभाने की कोशिश में लगे थे। कई बार आपको पापा की कमी लगी होगी। वो भावनात्मक सम्बल चाहिये था जो शायद हम नहीं दे पाये।या हमने उस दृष्टिकोण से तो सोचा ही नहीं कि आपको भी किसी की कमी महसूस हो सकती है। हम सिर्फ आपको मां समझ कर व्यवहार करते रहे।ये भूल गये कि आपका अपना वज़ूद है,जरुरतें ,इच्छायें और अपेक्षायें भी होंगी।<br /><span class=""></span><br />मां शायद आपके सामने कभी इतनी इतनी बेबाकी से नहीं कह पाती ।पर जानती हो मां, मैं बहुत खुशकिस्मत हूं कि मैं आपकी बेटी हूं। थोडी शर्मिन्दा भी हूं क्योंकि मैं उम्र के उस दौर में आपकी भावनात्मक जरुरतों को नहीं समझ पायी थी।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-80188354286041967562008-02-14T16:27:00.000+05:302008-02-14T16:29:09.379+05:30जिभिया चटापट होइबे , हम खइबे जलेबियाआज सुबह से ही फोन पर फोन आ रहे थे। बधाई देने के लिये। अरे-अरे हंसिये मत इसका वेलेंन्टाइन डे से कुछ लेना-देना नहीं। आज दिन है हमारी शादी की २३वीं सालगिरह का । शादी की याद आते ही उससे जुडी तमाम यादें,बातें ज़ेहन में घूम जाती है। कुछ खट्टी कुछ मीठी।<br /><span class=""></span><br />शादी के कुछ महीने पहले मम्मी यानि (सास)का पत्र आया।मजमून कुछ इस तरह था-अनु रानी हमारे यहां नई दुल्हन से गाना गवाया जाता है। ये एक रस्म है इसलिये गाना अभी से सीख लेना। पत्र पढते ही दिमाग भन्ना गया। हम तो गलती से घरवालों की उपस्थिति में बाथरुम में भी नहीं गुनगुनाते फिर यहां तो सबके सामने गाने की बात है। मम्मी समझा-समझा कर परेशान कि संगीत स्कूल चली जाऒ। जब भी मम्मी समझाने की कोशिश करती मैं कूद कर इस बात पर आ जाती कि -" लडकी हूं ना इसलिये ये सब दादागिरी। मैं जैसी हूं उसमें क्या? आप मनीष को क्यों नहीं कहती कि हमारे यहां भी रस्में होती हैं और उसे भी करनी पडेगी। वो मानेगा क्या?" ऒर भी ढेर सारे ऊल-जलूल तर्क-कुतर्क करती।<br /><span class=""></span><br />ये सिलसिला और लडाई कई दिनों चली। मेरी खास सहेली साधना इन सब बातों की चश्मदीद थी। उस दिन वो बिना बोले साइकिल लेकर चल दी। थोडी देर बाद एक मध्यवय के सज्जन के साथ हारमोनियम लिये हाजिर। ये है ,इसे सीखाना है। मैं इस अप्रत्याशित हरकत के लिये तैयार नहीं थी। खैर इधर-उधर की बातों के बाद उन्होनें गाने को कहा-ज़िद या संकोच कि गले से आवाज़ निकलने को तैयार नहीं। तीन-चार दिन की समझाइश के बाद एक फिल्मी गाना गुनगुनाया । लय-ताल , सुर सब बेताल ये दीगर बात की अभी तक उनसे दोस्ती नहीं हो पाई।<br /><span class=""></span><br />रहीम सर हमारी आवाज़ से खासे प्रभावित गिरते -पडते बस एक गाना वो सिखा पाये"आज खेलो श्याम संग होरी पिचकारी रंग भरी केसर की"इस गाने में गले को अच्छी खासी मशक्कत करानी पडती थी। भैया की शादी हमसे तीन-चार दिन पहले हुई थी। भाभी से जब गाने को कहा गया तो बिना एक सैंकंड गवाये दनादन ढोलक को थाप दे दे गाना सुनाया "मेरी नई -नई सासों के नखरे नये,बागों में जाये तो माली मटके" जब डांस की फरमाइश हुई तो एक की जगह तीन-चार गानों पर नाच कर दिखा दिया। नेग चार हुये ,सारे रिश्तेदार खुश सुघड बहू आई है।<br /><span class=""></span><br />अब मम्मी की वक्र दृष्टि हम पर थी। कि हम ना जाने क्या गुल खिलायेंगें अपनी ससुराल में।आखिरी पांच दिन में अब नये सिरे से गाना चुना गया-"जिभिया चटापट हुइबे ऒ हम खइबे जलेबिया ,सासु को दइबे बियाज में हम खइबे जलेबिया। ऐसे एक-एक करके सारे रिशतेदारों को ब्याज में दे देना था। जब भी गाने की कोशिश करते बराबर के भाई-बहिन टांग खिंचाई शुरु कर देते। देखो कितनी चटोरी है। दूसरा बोलता अरे किसी को मत छोडना उठा-उठा कर ब्याज में देते रहना एक-एक को। हम शादी को इन्जाय करने की बजाय पूरे समय आशंकित थे कि तब क्या होगा।<br /><span class=""></span><br />शादी के बाद की वो घडी भी आ गई -गोल घेरा बना कर सारे रिश्तेदार इर्द-गिर्द उत्सुकता के साथ कुछ अच्छा सा सुनने की उम्मीद लगाये एक-टक देख रहे थे। ऐन मौके पर हिम्मत जवाब दे गई। आवाज़ साथ देने को तैयार नहीं। हमारे मौन को मम्मी अपनी अवमानना मान कर नाराज़ सी लग रही थी। मनीष शुरु में मज़ा ले रहे थे,पर बाद में उनकी आंखों में हमारे लिये दया स्पष्ट दिख रही थी। पापा ने बात सम्भाली चलो छोडो अब तो ये यहीं है फिर कभी सुन लेना। लेकिन बुआ जी वगैरह छोडने के मूड में कतई नहीं थी। इस ना-नुकर के बीच कई धैर्यहीन श्रोतागण खिसक लिये। ये देख हमने राहत की सांस ली कि चलो कम लोगो के सामने मखौल उडेगा और फिर गाना सुना ही दिया। सब बडे खुश थे कि शगुन पूरा हुआ। मम्मी भी अब प्रसन्न थी बाद में बोली "तुम बेकार डर रही थी"।अब लगता है कि ये रस्में बडे सोच-समझ कर बनायीं गईं हैं कि नई दुल्हन नये परिवेश में सबसे घुल-मिल <span class="">जाये और उसकी झिझक भी कम हो जाये</span>।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-82403387748833653622008-02-13T15:47:00.000+05:302008-02-13T15:48:19.722+05:30नन्हीं बडी हो गयी<div>कृति का फोन था खुशी से लरजती आवाज़ "मां इन्फोसिस में मेरा सलेक्शन हो गया"सुन कर राहत की सांस ली। भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि उसका आत्मविश्वास डिगा नहीं। पहली बार में असफलता हाथ आने पर निराशा की भावना बलवती हो जाती। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।</div><br /><div></div><br /><div>पिछले दो दिनों से उसे लेकर बेहद परेशान थी। परीक्षा के तीन दिन बाद ही कैम्पस सलेक्शन के लिये इन्फोसिस आ रही है। मानसिक रुप से कोई भी इतनी जल्दी इन्फोसिस के लिये तैयार नहीं था। पर उसके लिये <span class=""><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0l3FXaYcwStqL5RDDqhhoMvXzWP3CFN7vhEQ0GH6OddaQH9iIEEDLtxEtTq0mQ3dL09munWqOx2F4VncL-6owk1GttdvledV33RRUHmxhl3oU0WB-5VZGnvTof2vCUMNAdIp4obwlxA/s1600-h/tonu..jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5166406408770776354" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0l3FXaYcwStqL5RDDqhhoMvXzWP3CFN7vhEQ0GH6OddaQH9iIEEDLtxEtTq0mQ3dL09munWqOx2F4VncL-6owk1GttdvledV33RRUHmxhl3oU0WB-5VZGnvTof2vCUMNAdIp4obwlxA/s320/tonu..jpg" border="0" /></a>कुछ</span> नहीं किया जा सकता था। कृति बी टेक थर्ड इयर की छात्रा है। उसका 11 को एप्टीट्यूड का टेस्ट हुआ। शाम तक रिजल्ट आना था। फिर कटलिस्ट बन कर इन्टरव्यू होना था। एप्टीट्यूड टेस्ट देते ही फोन आया। मां पेपर अच्छा नहीं हुआ । मेरा क्या होगा? मैंने उतने ही शान्त स्वर में कहा कोई बात नहीं दूसरी कम्पनी भी तो आयेंगी उसमें ज्यादा मेहनत करके देना। बस सुनते ही बिफर गयी "जानती हो ,ऐसे मौके मुशकिल से मिलते हैं"। जितना गुबार ,दुख,आक्रोश वो निकाल सकती थी वो निकाला हमेशा की तरह मां थी ना सुनने के लिये। उसकी पुरानी आदत है-परेशान होगी तो तुरन्त फोन करके बतायेगी। समझाऔ तो लडेगी पर फिर थोडी देर में फोन करके सॉरी बोलेगी तरह -तरह से मनायेगी कि आपको नहीं कहूंगी या आपसे नहीं लडूंगी तो किसको कहूंगी बोलो मां। मैं इन्तज़ार करती रही पर फोन नहीं आया। शाम को फोन आया सॉरी मां परेशान थी टेस्ट क्लियर हो गया मां अब थोडी देर बाद इन्टरव्यू है । हो तो जायेगा ना मां। हां बोलो मां। "हां हो जायेगा - पर तुम अनावश्यक दिमाग पर बोझ मत लो अपनी तरफ से पूरा प्रयास करो। क्या होगा वो मत सोचो अभी। ऐसा कहीं होता है क्या मां? अच्छा पहले फ्री हो जाऒ फिर बात करते हैं। रात नौ बजे उसने बताया कि इन्टरव्यू हो गया पर कुछ कहा नहीं जा सकता। उसकी आवाज़ साफ बता रही थी कि वो बेहद परेशान है। अब मेरी बारी थी समझाने की। "देखो जो होगा अच्छे के लिये होगा चिन्ता मत करो। नहीं होगा तो सोचो कोई ज्यादा अच्छा मौका मिलने वाला है"। जाऒ घर जाकर अब रेस्ट करो पूरा दिन हो गया। ठीक है और बात खत्म । सुबह में पूरी तरह से जागी भी नहीं थी की कृति का फोन- मां हो जायेगा ना? हां बोलो मां। मैं उसकी आवाज़ की व्याकुलता से भीग सी गई- हां हो जायेगा बेटू टेन्शन क्यों करती हो। अच्छा, आज इतनी सुबह कैसे जागी? नींद नहीं आयी मां। कालेज भी जाना है आज दूसरे कालेज भी जाना है वहां भी कम्पनी आयी है। जाऊं या नहीं? ये तो तुम्हें सोचना है। ठीक है मां। दिन भर थोडी-थोडी देर बाद फोन आते रहे। "हां बोलो मां' बस एक ये ही बात।</div><br /><div></div><br /><div>कृति शुरु से ऐसी ही है। छोटी थी तो चिपकु बच्चा थी। सामने दिखती रहती तो खेलती ना पा कर पूरा घर सिर पर उठा लेती। कभी-कभी शाम को गोदी में बैठ कर मेरे दोनों हाथ पकड कर बैठ जाती आज मेरी मम्मी काम नहीं करेगी। मैं शर्म से पानी-पानी कि घर वाले क्या सोचेंगें। अम्मा से फर्माइश होती- हलवा बनाऔ, फिर पूरी कढाई पर कब्जा जमा कर बैठ जाती कि बस मैं और मम्मी खायेंगें। नहाने जाती तो बाथरुम के बाहर डेरा डाल कर बैठ जाती। हां इति के होने के बाद थोडा परिवर्तन जरुर आया। धीरे-धीरे जिम्मेदारी का भाव भी आता गया घर से बाहर निकलने पर आत्मविश्वास भी बडा। </div><br /><div></div><br /><div>दिल के गवाक्ष खुले हैं और यादों की मंजूषा भी। फिर से फोन की घंटी बज रही है। अब तफ्सील से हर बात बतायी जायेगी । आज अहसास हुआ कि बच्चे बडे हो गये हैं । वक्त ना जाने कैसे इतनी तेजी से गुजर गया पता ही नहीं चला। </div>anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-50747510728216692342008-01-28T15:44:00.000+05:302008-01-28T15:48:17.719+05:30उड़ता मखौल और चूं न करते लोगकल कहीं टी वी पर हिन्दी का मखौल उडाया जा रहा था तो कहीं उसके साहित्य सृजन से जुडे लोगों का । कान ऐसे पकडिये या वैसे बात तो एक ही है ना। कब तक हिंदी के साथ अपनी ही धरती पर दोयम दर्जे का व्यवहार होता रहेगा और कब तक इसे सहना होगा। मौका था "जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल" का। चर्चा थी "राजस्थानी लोक साहित्य" पर ।<br /><br /><br />कार्यक्रम अलग-अलग दौर ,विषय और समय सीमा में विभाजित था।राजस्थानी लोक साहित्य पर चर्चा करने के लिये दो मशहूर राजस्थानी लेखक श्रीलाल मोहता और चंद्रप्रकाश जी देवल अपने निर्धारित समय पर उपस्थित थे। पर पहले से चल रही अंग्रेजी प्रकाशकों की वार्ता और चर्चा का दौर चल रहा था जिसके फलस्वरुप राजस्थानी लोक साहित्य पर चर्चा का दौर निर्धारित समय पर शुरु ना होकर कुछ विलम्ब से शुरु हुआ।<br /><br />चर्चा परवान चढ़ रही थी कि तभी आयोजन से जुडी अंग्रेजी की चर्चित उपन्यासकार नमिता गोखले ने समय सीमा का हवाला दे कर दोनों को अपमानित किया और उन पर जमकर बरसीं ।साथ ही उन्हें बिना चर्चा को समाप्त किये मंच से उतर आने पर विवश किया। यदि वो समय की इतनी ही पाबन्द थी तो पूर्व में चल रही वार्ता में उन्होंने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया था। फिर उस पर नमिता के इस कथन ने किसी और को ना सही पर मुझे आहत किया कि "ये हिन्दी -राजस्थानी वाले तो माइक से चिपक जाते हैं। इन्हें चुप कराना बडा मुश्किल है। अंग्रेजी वाले इस मामले में आर्गेनाइज्ड रहते हैं। वे समय पर बात खत्म कर देते हैं।बीच में टोके जाने पर बुरा नहीं मानते"। उसके बाद का बडबोलापन यह,उन्होने दावा किया कि वो कई बार हिंदी लेखकों को स्टेज से उतार चुकीं हैं।<br /><br /> समाजसेवी स्वामी हग्निवेश और चित्रा मुदगल भी वहां उपस्थित थी, साथ ही इस बात पर चित्रा जी ने कहा भी" अंग्रेजी के लिये तो बडा सभागार रखा गया पर हिन्दी और राजस्थानी के लिये उपेक्षित सा ये कोना दिया गया"।<br /><br /> भाषा का और उससे जुडे लोगो का इससे ज्यादा क्या अपमान होगा? धिक्कार है उन पर जो ऐसे आयोजनों में मौजूद तो रहते हैं पर विरोध तक नही कर सकते। धिक्कार है हम पर भी जो मूक दर्शक बने सहते रहते हैं। जब तक ऐसे बर्तावों की खिलाफत नहीं की जायेगी तब तक बारम्बार इसी तरह होता रहेगा। अपने ही लोगों के हाथों अपनी अस्मिता पर आंच आते देखते रहेंगें और यूं ही मखौल उडवाते रहेंगें।<br /><br /><br />पूरी जानकारी के लिए दैनिक भास्कर की <a href="http://www.bhaskar.com/2008/01/28/0801280510_rajsthani_literature.html"><span style="font-size:130%;"><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 0, 0);">इस</span></span></a> खबर को पढ़ा जा सकता है।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-25400900206448627822008-01-26T15:23:00.000+05:302008-01-26T15:27:53.323+05:30गणतंत्र दिवस- दिल से या रस्म अदायगी.......झंडारोहण के बाद कुछ देर पहले ही फैक्ट्री से लौटे हैं।दिल कुछ भारी सा है। आज गौर किया तो महसूस हुआ कि झंडारोहण के बाद राष्ट्रीयगान वाले सिर्फ कुछ ही लोग थे। मज़दूर महिलाऒं की बात छोड दी जाये क्योंकि अधिकांश अंगूठा छाप हैं। लेकिन बाकि लोगों की बात करें तो ? हम में से कितने है जो ऐसे समारोह में शिरकत करते हैं ।या साल में कितनी बार राष्ट्रगान गाते हैं। मैंने खुद याद करने की कोशिश करी तो याद आया पिछली बार पन्द्रह अगस्त को गाया था। गाया या बुदबुदाया ................ अगली बार शायद फिर स्वतंत्रता दिवस को ही गुनगुनाऊंगी। <br /> उत्साह जैसे लाख चाह कर भी नहीं महसूस हो रहा है। वो रोमांच कहां गया जब बचपन में दस-पन्द्रह दिन पहले से गणतंत्र दिवस की बाट जोहते थे।अपने स्खूल में सिखाई गई ड्रिल को मोहल्ले को बच्चों को इक्ठ्ठा करके सिखाते थे।जब कोई नहीं मिलता तो दोनों भाई-बहिन एक-दूसरे की सशर्त ड्रिल देखते थे।परेडग्राउंड में पापा को यूनीफार्म में देख हम दोनों गर्व से इतराते थे। सहपाठियों की काना-फूसी और प्रश्न बार-बार आते-"तेरे पापा पुलिस में हैं क्या'?बाल सुलभ बुद्धि से तत्परता से जवाब देती -"नहीं, उससे भी बडे हैं। पता है- एन सी सी ऑफीसर हैं"।<br /> वो भी याद है रिदम बिगडते ही लेझीम की हाथ पर चोट तडपा गई थी। पर सर ने कहा था- सबसे अच्छी ड्रिल हमारी होनी चाहिये ।इसलिये आंखों में आंसू भरकर भी बिना रुके करते गई थी।वो दिन भी याद है जब गणतंत्र दिवस को भय्या और मैं पिटे थे।साल में दो बार-पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को मम्मी स्कूल सफेद सिल्क की साडी जिसका एक अंगूल का लाल पाट था पहन कर जाती थी।उस दिन भी उन्होंने वो साडी निकाली पर बार्डर गायब। मां को समझ नहीं आ रहा था कि ये वो ही साडी है या कोई ऒर । अगर वही है तो बार्डर कहा गया? तभी भैया से चिढी हुई मैंने पोल खोल दी कि इसने लाल पाट को फाडकर पतंग की पूंछ बना ली थी। दूर से भैया चिल्लाया "झूठ्ठी तेरी पतंग की भी तूने पूंछ बनायी थी"। हां, पर फाडी तो तेने थी ना। इतरा तो तू रही थी देख कैसी-मेचिंग-मेचिंग पूंछ है। मां का गुस्सा सातवें आसमान पर था और अगले ही पल हमारे लाल-लाल गाल।<br /> खैर गणतंत्र दिवस बीत रहा है।आज जो गाने सूने है अब अगली बार पन्द्रह अगस्त को सुनने को मिलेंगें। मैं अभी भी असमंजस से घिरी उस उत्साह और रोमांच की तलाश में हूं जो राष्ट्रीय पर्व को लेकर होना चाहिये।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-46683281070433951982008-01-24T18:19:00.000+05:302008-01-24T19:31:10.438+05:30पालतु रखिये- तनाव मुक्त रहिये<div style="text-align: center;"><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">पालतु रखिये- तनाव मुक्त रहिये</span><br /></div><br />अवसाद मुक्त रहना हे तो कोई भी पशु पालिये। जी हाँ अचूक इलाज़ है अकेलेपन का भी और अवसाद का भी। मैंने अपने बचपन से इनका संग पाया है। बच्चों के हास्टल जाने के बाद तो इनका संग अपरिहार्य हो गया है। बडी बेटी जब आज से ४ साल पहले हास्टल गयी तो पास में इति थी छोटी बेटी। सूनापन मन के आंगन में पसरा पर उससे उबर गयी।<br /><br /> जब इति के हास्टल जाने की बारी आई तो अपने अकेलेपन के बारें में सोच-सोच कर कलेजा मुहं को आने लगता था। सबके सामने बहादुर बनी मैं अकेले में ना जाने कितनी बार अपने आंसू पौंछती थी। वो दिन भी आ गया जब खुद उसे छोडने गयी। चलते वक्त बरबस आंखें भर आयी। रास्ता पूरा मौन पर रोते हुये गुज़रा। मैं रो-धोकर जी हल्का कर लेती थी पर मनीष एक-चुप हज़ार चुप थे। घर जहां ५-६ लोग हमेशा होते थे अब हम दो। वाकई घर का सूनापन दिल के खालीपन को और बडा देता था।<br /><br /> मम्मी-पापा इति के जाने के पहले ही हैदराबाद जा चुके थे ।अपने छोटे बेटे के पास कुछ दिन रहने के लिये। मनीष <a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSYErl35hpPJ_MLybU_immfZBgpe0UaseBXI0zS0ON53ZsnVAzHp67rZfbuiGWSt4MB7nGhgeSUbjtFLBRWVaIPEAgESTZ91qe3tXRyoLCZP_YSN8p7ySNFtISh1DxWlK6xMHL78WFrg/s1600-h/DSC00088.JPG"><img style="margin: 0pt 10px 10px 0pt; float: left; cursor: pointer;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSYErl35hpPJ_MLybU_immfZBgpe0UaseBXI0zS0ON53ZsnVAzHp67rZfbuiGWSt4MB7nGhgeSUbjtFLBRWVaIPEAgESTZ91qe3tXRyoLCZP_YSN8p7ySNFtISh1DxWlK6xMHL78WFrg/s320/DSC00088.JPG" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5159042253245160050" border="0" /></a>हमेशा की तरह अपने काम पर जा चुके थे।मैं अकेली सुस्त बीमार सी चुपचाप पडी थी। सैमी( हमारी पालतु कुतिया) कई बार पास आकर उठाने की चेष्टा कर चुकी थी। तीन-चार दिन ऐसे ही निकले फिर सैमी ने खुब तंग करना शुरु किया। मेरे मुहं ढक कर लेटते ही कूं कूं करके रोना शुरु। मैं अपना दुख भूल कर जानने की कोशिश करती कि आखिर हुआ क्या है? थोडी-थोडी देर में ज़िद की बाहर घूमाने ले जाऔ। घूम कर आती तो एक-टक निहारती। जब मैं व्यस्त होती तो कोई बात नहीं ।पर खाली बैठते ही उसकी फर्माइश शुरु हो जाती।कुछ खाने को दो या खेलो। मनीष से वो थोडा डरती थी। पर इन तीन-चार दिनों में एक परिवर्तन मैंने महसूस किया । उनके आते ही दौड लगा कर जाती और पैरों में लौट लगाती । अपनी ऒर से उसका भरसक प्रयत्न होता की हम दोनों उससे खेलें या बातें करें। कुल मिला कर उसको हमारा चुपचाप उदास बैठना पसंद ना था।ये बात अब हम भी समझ रहे थे कि वो ये सब हमारे लिये कर रही है। पूरे समय हम दोनों की गतिविधियों पर नज़र रखती और ज़रा सा भी परेशान देखते ही गोदी में आ चढती। बातें वो सब समझती थी कोई गलती करती और शाम को मैं मनीष को बताती तो उसकी चापलूसी शुरू हो जाती कि मत<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgK7v-k9MHn9VYmbxIkgo5vLD0vuQ7_bX0CBdzcdNF69pUj83GIXjD2ERtVySUlcCTvdRKSHiCXVn1svwYtYP3iAF2eGhg5fGFIjJJQw7A96EFhvbQzO-X2iXXClJiPyMjiURedhoTjRg/s1600-h/DSC00099.JPG"><img style="margin: 0pt 0pt 10px 10px; float: right; cursor: pointer;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgK7v-k9MHn9VYmbxIkgo5vLD0vuQ7_bX0CBdzcdNF69pUj83GIXjD2ERtVySUlcCTvdRKSHiCXVn1svwYtYP3iAF2eGhg5fGFIjJJQw7A96EFhvbQzO-X2iXXClJiPyMjiURedhoTjRg/s320/DSC00099.JPG" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5159042553892870786" border="0" /></a> बताऒ। संध्या को पूजा में दीपक जलाने जाती तो बीच पूजा में आकर गोदी में बैठना होता था। ये भी एक तरह की ज़िद थी। जब मम्मी घर में होती तो वो ना पूजा और ना रसोई में जाती थी। पर अब सिर चढे, चिपकू बच्चा बन कर मम्मी यानि मेरे पीछे घूमना होता था। पापा के साथ रात को खाना होता था चाहे मन ना हो रोटी निगलनी पड रही हो पर उसने अपना खाने का समय हमारे साथ का कर लिया था। शाम को मनीष कुछ हल्का-फुल्का खाते हैं। तो उस समय भी मनीष के हाथ से खाना है। कभी-कभी काजू खाने की फर्माइश होती थी। अब तो मनीष भी उसकी हर जरुरत ,पसन्द -नापसन्द को जान चुके हैं। सैमी को मनीष के साथ कार में घूमने जाना बहुत पसन्द था। खिडकी से मुंह निकाल कर ऐसे इतराती जैसे सबको बताना चाहती हो देखो ,मुझे देखो, अपने पापा के साथ घूमने आयी हूं। रेस्टोरेंट में आइसक्रीम खाना भी खूब पसन्द था। बडी तमीज़ से अलग कुर्सी पर बैठाया जाता । पेपर नेपकिन नीचे लगा कर चम्मच से आइसक्रीम खिलायी जाती । इतनी अदा से खाती की सब आस-पास वाले उसे निहारते और शायद ये बात वो जानती थी और उसे ऐसे मौकों पर मज़ा आता था। छोटे बच्चे उसे सख्त नापसन्द थे क्योंकि उनके आने से उसका गोदी में बैठ पाना मुमकिन नहीं होता था।बच्चे जब हास्टल से घर आते तो दो-चार दिन उसे अच्छा लगता ।फिर बच्चों से शुरु होती उसके अपने अधिकारों की लडाई। खासतौर पर मुझे लेकर । जब दोनों बेटियां गलबैंया डाल कर इधर-उधर लेटती तो वो बौखला जाती ।इति अक्सर उसको चिढाकर बोलती देख मेरी मम्मी और फिर दिखा-दिखाकर प्यार करती कुछ पल अपलक देखती और छलांग लगा कर मेरे ऊपर चढ बैठती फिर बडे गर्व से उन दोनों को देखती जैसे कह रही हो देख लो ये मेरी मम्मी हैं बस मेरी।<br /><br /><br /> उसकी इन छोटी-छोटी हरकतों ने ,प्यार ने हमें अपने अकेलेपन और उदासी से निकलने में बडी मदद करी। सही मानिये इनका साथ आप में नई स्फूर्ति पैदा करगा। कई रिसर्च ने भी इस बात पर सहमती जताई है कि पालतु जानवर का साथ आपके तनाव को कम करता है और आत्मविश्वास को बढाता है। फिर देरी किस बात की आप भी आज़मा कर देखिये।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-64966982442183067462008-01-14T15:06:00.000+05:302008-01-14T18:30:06.645+05:30होना इन्सपायर्ड युवाओं कानये साल पर सब लोग नये-नये रिज़ाल्यूशन्स लेते है। पर हमारे संजीत भाई ने शुभ दिन चुना अपने जन्मदिन का । हमने भी मुबारकबाद दी बातों-बातों में पुछा तो पता चला कि इस बार का उनका रिज़ाल्यूशन्स’ है कि अपनी "हाथ अगरबत्ती पैर मोमबत्ती "वाली छवि से मुक्ति पायी जाये।<br /><br />हमने पूछा -भई सोचा तो ठीक ही है तो इरादा क्या है? । थोडी देर मौन रहने के बाद कुछ झिझकते हुये -भाईजान ने फरमाया कि सोचा है योगा शुरू किया जाये। गुड, आइडिया तो अच्छा है। ज़नाब हौले से मुस्कुराये। कहीं कोई कैम्प ज्वाइन करना है क्या ? हमने प्रश्न दागा । बोले नहीं एक दोस्त बाहर से आने वाला है उससे सीडी मंगवाई है।<br /><br />योगा ...................... सीडी........... बाहर से ............... हमारे कान कुछ खडे हुये।बिना मौका दिये तत्काल पूछा वो <a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_kfz0alsvbKT7DPcgVtGKxRvYRdF4Ri7iJh4ovG0VXHcfj23YcbmR7przu866FH0vzfY8CoebTONwpOQcXdMqdG3a3d5zdobDES6Z1cV4ooVXEzIG2sKWV30O-yBzyuF1zxbMsqxYDA/s1600-h/shilpa.jpg"><img style="margin: 0pt 10px 10px 0pt; float: left; cursor: pointer;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_kfz0alsvbKT7DPcgVtGKxRvYRdF4Ri7iJh4ovG0VXHcfj23YcbmR7przu866FH0vzfY8CoebTONwpOQcXdMqdG3a3d5zdobDES6Z1cV4ooVXEzIG2sKWV30O-yBzyuF1zxbMsqxYDA/s320/shilpa.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5155310056077242418" border="0" /></a>शिल्पाशेट्टी वाली। अरे ,आपको कैसे पता? भैया उम्र का तकाज़ा है। इतना अनुभव तो हो चुका कि उडती चिडिया के पर गिन सके। हमने भी तीन दिन तक इंडिया टीवी पर दिखाई जाने वाली सुगठित देह-यष्टि ,सधी हुई मुद्रा ,श्वसन-प्रश्वसन ,प्राणायाम करती शिल्पाशेट्टी की योगा गुरु वाली सीडी की क्लीपिंग्स बिना पलक झपकाये बडे मंत्र-मुग्ध भाव से देखी थी। जब हमारा ये हाल था तो फिर संजीत का क्या हुआ होगा सहज अन्दाज़ा लगा सकते हैं। फिर संजीत ने जो रिज़ाल्यूशन्स लिया कोई ऐसे ही तो लिया नहीं होगा।<br /><br />क्यों भई ,हम गलत थोडे ही कह रहें हैं। संजीत जैसे ना जाने कितने युवा इस सीडी से इन्सपायर्ड होंगें, आप अन्दाज़ा लगा ही सकते हैं।एक समय था जब बाबारामदेव योग क्रांति लाये थे । अब युवा दिल ,हर दिल अज़ीज़ शिल्पाशेट्टी नये रूप में हैं। साधुवाद , चलिये कोई तो कारण मिला हमारे युवा लोगों को इन्सपायर्ड होने का।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-41281883621489790292008-01-08T15:06:00.001+05:302008-01-10T16:52:04.842+05:30मिलेगा ऐसा कोई कभी?डॉ गरिमा तिवारी जिनसे परिचय तो हुआ था हिन्दयुग्म की प्रतियोगिता जीतने के बाद मेडिटेशन सीखने के दौरान ।लेकिन कब धीरे-धीरे उसने अपने लिये दिल में जगह बना ली कि पता ही नहीं चला । वो "मै और कुछ नही…" और "जीवन ऊर्जा" नाम से ब्लॉग लिखती है। उसकी इच्छा थी कि यह पोस्ट हम अपने ब्लॉग पर दें तो उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए हम उसकी पोस्ट यहां डाल रहे हैं------<br /><br /><br /><br /><div style="text-align: center;"><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">मिलेगा ऐसा कोई कभी?<br /><br /></span></div>कुछ दिनो पहले एक सहेली का रिश्ता आया था, उसे लोग देखने आये तो वो मुझे भी अपने साथ होने को बोली.... ऐसे माहौल पर मै हमेशा से जाने से कतराती हूँ, पर कोटा की एकमात्र हम उम्र महिला सहेली ने निवेदन किया तो टाला भी नही जा सकता था... उस दिन मै पुरे दिन उसके साथ रही... यहाँ तक की ब्युटीपार्लर तक जाना पड़ा साथ साथ (सबसे खतरनाक जगह), खैर मै उसका बनना सवरना देख रही थी, बीच बीच मे आँटी जी( उसकी मम्मी) नसीहते देना भी सुन रही थी, देख बेटी, सबके सामने आँखे झुका के बाते करना, जो कोई कुछ पुछे आराम से जवाब देना, तु कुछ मत पुछना.... वगैरह वगैरह... तभी अंकल जी ने कहा... और अपने लड़को जैसे दोस्तो को सामने मत लाना... और अपनी बहादूरी का बखान मत करना... सभ्य शालीन बनकर सामने आना... वगैरह वगैरह।<br /><br />अब ये सारी बाते उबकाई लाने के लिये बहुत लग रही थी... मै वहाँ से खिसकने के बहाने बना रही थी... लेकिन सहेली जी हैं कि बस... अंत तक उसे मेरी हालत पर तरस आ गया और मुझे निकलने की इजाजत दे दी एक शर्त के साथ की मै उसके दुसरे सहेली को साथ लेकर दुबारा 4 बजे आऊँगी... मुझे क्या चाहिये था.. खिसकने का बहाना... लेकिन ये क्या दुबारा आना... खैर मैने हाँ बोला और साँस लेने निकल पड़ी।<br /><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzTgo9GkBLF_FwtO8MgSbCIdLtZx5aJs58RaqEU9yz7EGExilnEMjOD_XCw7hAgrX0p15EUOR1jcTZShE9BB5yHIKhmVOJofxEp_0mySGEK2FqUMhBs_jrg6foj-veV9WlABScx0Xl3Q/s1600-h/0709.jpg"><img style="margin: 0pt 10px 10px 0pt; float: left; cursor: pointer;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzTgo9GkBLF_FwtO8MgSbCIdLtZx5aJs58RaqEU9yz7EGExilnEMjOD_XCw7hAgrX0p15EUOR1jcTZShE9BB5yHIKhmVOJofxEp_0mySGEK2FqUMhBs_jrg6foj-veV9WlABScx0Xl3Q/s320/0709.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5153806366552076322" border="0" /></a>मै सोच रही थी कि कोई बहाना कर लूँ, पर वक्त पर उसकी सहेली आ गयी, और मरती क्या ना करती कबुतरखाने मे मुझे जाना ही पड़ा... वहाँ पहूँचे तो सब तैयार था... मेरी सहेली ने देखती ही इशारा किया (लेट क्यूँ किया?) वैसे जवाब वो जानती थी, मुझे कुछ कहना नही पड़ा... वैसे भी शायद मै बोल नही पाती..उन लोगो की बाते हो रही थी... बाते क्या सिर्फ सवाल... और सहेली कुछ सीमित शब्दो मे जवाब दिये जा रही थी। मै सोच रही थी मेरी शेरनी को क्या हुआ??? मेरी जिन्दगी मे यह पहला अनुभव इस तरह का.... वैसे टी वी सीरीयल मे कभी कभार देखा है या किसी से सुना है पर आँखो देखा अजीब लग रहा था...।<br /><br />भईया मेरी स्थिती को भाँप गये (सहेली के बड़े भाई), और मेरे लिये स्थिती सामान्य करने के लहजे से बोल पड़े, डॉ साहिबा जरा औरा रीडींग कर दिजिये... थोड़ा आपका मुड भी हल्का हो जायेगा, और हमे कुछ जानकारी भी मिल जायेगी.... हुह! तब से चुप बैठी थी... थैंक्स भईया बोल के एक एक की रीडींग शुरू.... लगभग सभी लोग संतुष्ट थे... तभी किसी ने पुछा.. क्यूँ बेटा तुम्हे शादी नही करनी? मैने सोचा अपना वही प्यारा सा जवाब दे दूँ "नही" ... पर मै बोली... करनी तो है.. परआँटी जी बोले कि मेरी नजर मे एक लड़का है कहो तो तुम्हारे मम्मी से बात करूँ?मैने कहा शौक से... पर मेरी कुछ शर्ते हैं, लड़का इन शर्तो पर खरा उतरता हो तो... और मेरे शर्तो कि श्रृँखला शुरू हुई---<br /><br />1.लड़का बहुत लम्बा ना हो, ना ज्यादा छोटा हो... मतलब मेरे जैसा<br />2. मेरा हम उम्र हो<br />3. गुस्से वाला ना हो<br />4. उसे खाना बनाने आता हो<br />5. मेरा ऑफिस जान उसे नागवार ना हो<br />6. घर सम्भालने की जिम्मेदारी उसकी<br />7. मै कभी देर से घर वापस आऊँ तो कोई सवाल ना पुछे<br />8. मेरी प्राइवेसी मे ताका-झाँकी ना करे<br />9. मुझसे, कभी, क्यूँ इत्यादि सवाल ना करे<br />10. मै थकी रहूँ तो पैर भी दबाये<br />11. मतलब कि एक आदर्श गृहणी आजतक जो जो करती आयी है, लगभग सारे काम वो करेगा....<br />12. रोज रोज मेरे लिये बाजार से चॉकलेट लाये... हाँ मै चॉकलेट मे मामले मे इमानदार हूँ, वो मिल बाँट के खा लेंगे।<br />13. और इन सारे शर्तो मे मै अपने हिसाब से कभी भे घट बढ़ा सकती हूँ।<br />14. वो कभी कोई शर्त मेरे सामने ना रखे.............<br /><br />अब ये सारे शर्त कोई लड़का पूरा कर सके तो जरूर बताना.... वरना जरूरत नही है। इतना कहना था कि सब ठहाके लगाकर हँस पड़े और एकमत स्वर मे बोले, ऐसा लड़का मिलना मुश्किल ही नही नामुमकिन है.....<br />तो बताईये है क्या कोई ऐसा......?<br /><br />डॉ गरिमा तिवारी, कोटा, राजस्थानanuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-54382160010463078832008-01-08T15:06:00.000+05:302008-01-08T16:42:10.192+05:30अनछुए लम्हें<div align="left"> गर्मियों की छुट्टियों में जब भी लखनऊ जाते थे तो पापा एक बार हमें वज़ीरगंज जरुर ले जाते थे। अपना पुराना घर दिखाने। सडक के एक ऒर खडे होकर बताते देखो वो वाला घर हमारा था। "दादी यहां बैठी रहती थी। वो ऊपर जो कमरा दिख रहा है ना वो मेरा और आनन्द का था"। उनके चेहरे पर आते -जाते भाव आज स्पष्ट महसूस होते हैं। तब ना महसूस करने की क्षमता थी ना उम्र। शायद कभी उस नज़रिये से देखा भी नहीं था। </div><div align="left"> सालों बाद जब पापा ने ट्रांसफर के बाद झालावाड में ज्वाइन किया और उसी घर में रहने गये जो पहले कभी प्रिंसीपल का बंगला था और (अब हास्टल वार्डन और वाईस-प्रिंसीपल का) पापा अपने स्कूल टाइम में वहां रह चुके थे। यादें उनकी आंखों में साफ दिखायी दे रहीं थीं।ये कमरा दादी का था। देखो, दीवार पर तभी टाइल्स से उन्होंने त्रिशूल बनवाया था। ये बाबूजी की स्टडी थी ।जहां कोई बच्चा नहीं जा सकता था। यहां जिया की बेटी रमा हुई थी। ये घासी (चपरासी) का कमरा था। वो वाला हम बाकि भाई-बहिनों का। और भी ना जाने कितनी बातें जो उनकी स्मृतियों में ताज़ा हो चुकीं थीं। तब पहली बार घर के प्रति अपनत्व की भावना पैदा हुई थी। </div><div align="left"> आज जब नयी पीढी को अपने पुश्तैनी मकान से असम्पृक्त पाती हूं तो कहीं अफसोस की भावना बलवती हो जाती है। घर से जुडाव को महज वो एक ज़िद मान कर चलते हैं। ये सही है कि आज के समय में मात्र भावुकता से काम नहीं चलता पर उसे नकारा तो नहीं जा सकता ना। भौतिकतावादी सोच में शायद ऐसी किसी भी सोच के लिये कोई ज़गह या महत्व नहीं है। पर मैं खुद घर ,उसकी चारदीवारी,अपनेपन को अहमियत देती हूं। ना जाने कितनी यादें हैं जो कहीं ना कहीं घर से जुडी होतीं हैं। पुराने घर यानि पुश्तैनी मकान में अपने बुजुर्गों की खुशबू सी आती है। कई लोग मेरी सोच से सहमत नहीं होते पर ....................</div><div align="center"> क्यों चाहते हो न करुं</div><div align="center"> मैं इनसे बात </div><div align="center">तुम्हारे लिये हैं ये प्रस्तर खंड मात्र</div><div align="center">पर मेरे लिये-</div><div align="center">शैशव मे था सुखद बिछौना</div><div align="center">बालकाल में मूक सहचरी</div><div align="center">यौवन की मीठी धडकन से भी हैं ये वाकिफ</div><div align="center">हमारे प्यार की प्रथम अनुभूति से भी हैं, ये अभिभूत</div><div align="center">फिर भी तुम कहते हो </div><div align="center">ना करूं मैं इनसे संवाद</div><div align="center">कई बार मैं इनसे लिपट कर रोई हूं</div><div align="center">कई बार मैं इनके सान्निध्य में खिलखिलाई हूं</div><div align="center">और-कई बार मैं इनसे शर्माईं हूं</div><div align="center">तुम फिर भी कहते हो</div><div align="center"> ना करूं मैं इनसे वार्तालाप</div><div align="center">इनमें है प्रौढ स्पन्दन</div><div align="center">जो अहसास दिलाता है</div><div align="center">मेरे पूर्वजों का मुझसे प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष</div><div align="center">परोक्ष-अपरोक्ष रुप से जुडे होने का</div><div align="center">उनके सान्निध्य ,अपनेपन व संरक्षण का</div><div align="center">फिर भी तुम कहते हो</div><div align="center"> ना करूं मैं इनसे प्रेमालाप</div><div align="center">यहां से उठती अर्थियों को देखकर</div><div align="center"> ये भी स्तब्ध होकर </div><div align="center">थोडी ऒर पथराई होंगीं</div><div align="center">यहां से सजती डोलियों को देख </div><div align="center">ये भी ह्रदय में हूक लिये </div><div align="center">डबडबाई-सिसकी तो होंगीं</div><div align="center">यहां सुनकर बधावे के गीत </div><div align="center">ये भी तो हर्षाई होंगी</div><div align="center">यहां सुनकर किलकारियों की गूंज </div><div align="center">ये भी मुस्कुराईं तो होंगीं</div><div align="center">बोलो -चुप क्यों हो?</div><div align="center">क्या अब भी चाहते हो,</div><div align="center">कहते हो</div><div align="center">मैं न करूं इनसे बात। </div>anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-43189442821129538732008-01-04T16:20:00.000+05:302008-01-04T17:00:23.160+05:30"आइये स्वागत करें ,ऐसे फैसलों का"<div align="left"> कुछ दिनों पहले हम रिश्तेदारी में एक जगह मिलने गये। सबसे मेल-मुलाकात हो गई उनके सुपुत्र जी नादारद थे।पता चला वीडियोगेम खेल रहें हैं । काफी बुलाने के बाद जनाब तशरीफ लाये। हाय,हैल्लो की औपचारिकता पूरी करी और फिर गायब व मशगूल अपने गेम में।</div><div align="left"> हम भी पहुंचे उत्सुकता पूर्वक देखने की आखिर ऐसा क्या है जो वो गेम से विछोह बर्दाशत नहीं कर पा रहें हैं। पीछे खडे होकर थोडा मुआयना किया तो पता चला कि कोई दो ग्रुप के मार-धाड पर आधारित खेल है। एक लडके को मिलकर तीन-चार लोग पीट रहें हैं। तभी पिटने वाले लडके के ग्रुप के सदस्य आ जाते है सब गुथम-गुथ्था। बस इससे ज्यादा हम उसे नहीं झेल पाये। </div><div align="left"> लौटते वक्त तक यहीं सोचते रहे कि रोज इसी प्रकार के खेल बच्चे की मानसिकता पर क्या असर करेंगें। बच्चों के कोमल मन पर पडने वाले प्रभाव को सोच कर हम सिहर उठे थे। सप्रयास हमने अपने को इस विचार से दूर रखने की कोशिश करी पर सफल नहीं हो पाये।</div><div align="left"> कल न्यूज़ की एक हेडलाइन ने ज़रा हमें आश्वस्त किया कि अब ज्यादा दिनों तक इस प्रकार के वीडियो गेम नहीं खेले जा सकेंगें क्योंकि अब वीडियो गेम्स पर भी सेंसरशिप लागू होगी। चलो देर आयद दुरस्त आयद, सेंसरशिप के बाद अत्यधिक खूनखराबे और सेक्स वाले कंप्यूटर गेम्स बच्चों को देखने को नहीं मिलेंगें। सूचना प्रसारण मंत्रालय के अनुसार लम्बे समय से अभिभावक ऐसे गेम्स की खिलाफत कर रहे थे।</div><div align="left"> मंत्रालय विधेयक के मसौदे पर विचार कर रहा है। विशेष वीडियो गेम के लिये बच्चों की आयु सीमा तय करी जायेगी।साथ ही यदि कोई वीडियोगेम भारतीय स्थितियों के अनुरूप नहीं है तो सेंसर बोर्ड को उसे खारिज़ करने का अधिकार भी होगा। जिस प्रकार डीवीडी कवर पर सेंसर बोर्ड का प्रमाण-पत्र दर्शाना होता है उसी प्रकार की अनिवार्यता वीडियोगेम्स के कवर पर भी होगी। सेंसर बोर्ड अध्यक्षा शर्मिला टैगोर के मुताबिक "प्रस्ताव लागू होने के बाद पालकों को खरीदे जाने वाले वीडियोगेम की पूरी पक्की जानकारी मिल सकेगी।गेम्स अनुचित सामग्री पाये जाने पर उन्हें हटा दिया जायेगा।"</div>anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-76134993886110676972007-12-20T05:24:00.000+05:302007-12-20T05:31:30.287+05:30"उफ्फ ये मीडिया"कुछ अच्छा सा देखने की नीयत से हम बार-बार टी.वी. का रिमोट खटकाये जा रहे थे। तभी नज़र पडी एक न्यूज़ चैनल से प्रसारित हो रहा था-थोडी ही देर में-"चोकिंग" युवाऒं खासतौर पर बच्चों में लोकप्रिय होता नया गेम। जिज्ञासावश हमने भी पूरा प्रोग्राम देखने की ठानी।<br /><br />जैसे -जैसे चोकिंग गेम की असलियत सामने आयी हमारी रुह काँप गई। एक तरह से आत्महत्या की रिहर्सल जैसा कुछ-कुछ। इस बात पर और ज्यादा कोफ्त हुई कि जिस तरह से उस न्यूज़ चैनल ने पूरे दिन उस " गेम"को लेकर शगुफा फैलाया था उससे निश्चित ही दर्शक संख्या में इज़ाफा हुआ होगा। हमारे जैसे अज्ञानी भी पूरी तरह से इससे वाकिफ हो चुकें हैं । सोचिये "सिरफिरे" ,कुछ नया करने की चाह रखने वाले युवा खासतौर पर बच्चे । उनका क्या होगा? दावे से कह सकते हैं, कि जिस तरह से इस गेम की चर्चा करीं गई उससे प्रेरित हो कर कुछ लोग तो इसे ट्राई कर चुके होंगें।<br /><br /> चोकिंग-साँस रोकने की ऐसी प्रक्रिया जिससे ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है और फिर मृत्यु की निकटता का अहसास किया जाता है। और उस अहसास को शब्द दिये गये"मृत्यु से एक मिनिट पहले मौत का रोमांच"।"ऑक्सीजन की कमी से जो अस्थायी परिवर्तन होते है उनका अहसास कई मादक पदार्थों के सेवन से उत्पन्न होने वाले नशे से अधिक हैं।" इस तरह से इसके प्रभाव का वर्णन जैसे चोकिंग कोई बडी ही खास चीज़ है। इस तरह के उदाहरण मेरे ख्याल से काफी हैं ,उन लोगों के लिये जो किसी भी तरह का जोखिम उठाने का माद्दा रखते हैं है, या कुछ नया अनुभव करने की हसरत। <br /> <br /> इस तरह के कायर्क्रम का औचित्य क्या है ? ये हमारी समझ के बाहर की बात है। आपको पता हो तो प्लीज़ हमें भी समझा दीजियेगा। वरना "मीडिया वालों को सदबुद्धि दें" कुछ इस तरह की प्रार्थना हमारे साथ कर लीजियेगा।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-34827994201703134022007-12-07T11:27:00.000+05:302007-12-07T11:33:37.634+05:30"शिक्षक बनाम बिना रीढ की हड्डी वाला प्राणी"एक समय था जब शिक्षक को सबसे सम्मानीय समझा जाता था। जहाँ तक मेरे बचपन की मुझे याद है हम अपने शिक्षक के नियमित रूप से पैर छूते थे। वो भी प्रत्येक विद्यार्थी को निजी तौर पर जानते थे।<br /> आज ना शिक्षक अपने विद्यार्थी को जानता है ना उसका उसे मौका ही मिल पाता है। बेचारे सरकारी शिक्षक की ड्यूटी विद्यालय को छोड कर हर जगह जो लगा दी जाती है। मतगणना हो या पशुगणना,बीपीएल सूची के लिये नामों की लिस्ट बनानी है या मतदाता सूची का नवीनीकरण करना है,सर्व उपलब्ध प्राणी है ना शिक्षक । मिड डे मील के नाम पर खाना तक बनाना पडता है।आर्थिक गणना हो या पल्सपोलियों,स्वास्थ्य संबंधी जानकारी के लिये कोई आंकडे उपलब्ध कराने हो तब भी उन्हें ही भेजा जाता है. बिना ये जाने की उनके इतर कामों में व्यस्त रहने का खामियाजा बच्चे भुगतते हैं।एक तरफ साक्षरता दर बढाने के प्रयास हो रहें हैं, तो दूसरी तरफ शिक्षक के अभाव में पढाई से अरुचि के कारण स्कूल छोड कर जाने वाले बच्चों की संख्यां भी कम नहीं है।<br /> दोष किसे दें हमारे तंत्र को या शिक्षकों को? कभी शिक्षकों की मनःस्थिति जानने की कोशिश करी गई है क्या ? वो कितने मानसिक तनावों से गुजरते है। किसी तरह पाठ्यक्रम को पूरा कराना साथ ही अन्यत्र लगायी गई ड्यूटी का निर्वाह करना। अन्त में खराब रिजल्ट देने पर गाज़ भी उन्हीं पर गिरती है। जब कभी अपने साथियों को दर-दर आंकडे एकत्रित करते पाती हूँ तो अपने नौकरी ना करने के निर्णय को खुद ही सरहाती हूँ। जिस उद्देश्य और मानसिकता के तहत इस कार्यक्षेत्र का चुनाव किया जाता है । उससे नितान्त अलग प्रकृति के जब काम करने पडते है ,तो कैसी कोफ्त होती है। ये तो वो ही अच्छे से जानता है जो कि भुक्तभोगी है। <br /> सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आज कुछ राहत महसूस हुई है जिसमें की आदेश दिये गये है कि शैक्षिक दिवस के दौरान शिक्षकों की अन्यत्र ड्यूटी ना लगाई जाये। उम्मीद है इससे शिक्षकों को कुछ तो राहत मिलेगी।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-53536236502047706362007-11-10T13:08:00.000+05:302007-11-10T13:16:53.815+05:30सपने में देखी सुनीता जी की पार्टी<div style="text-align: center;"><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">सपने में देखी सुनीता जी की पार्टी<br /><br /><br /></span></div>समीर जी के स्वागत में सुनीता जी ने जो पार्टी रखी थी उसमें क्या-क्या होगा उसकी कल्पना करते-करते ना जाने कब आँख लग गई। भला हो सपनों का, जो काम सहज ना होता हो वो सपनों में चुटकी बजाते ही सम्पन्न हो जाता है। तो सुनिए आप भी हमारी स्वप्नदर्शी पार्टी का आँखों देखा हाल-<br /><br /><div style="text-align: center;">धीरे-धीरे रंग पार्टी का जमने लगा है,<br />कोई गलबहियां डाले तो,<br />कोई चहक-चहक कर मिला,<br />पर जो भी मिला खूब गर्म जोशी से मिला।<br />सुरुर जमने लगा और सुगबुगाहट शुरु हो गयी।<br /><br />कहीं से एक आवाज़ उठी और भीड में खो गई,<br />थोडी ही देर में उसी प्रश्न को हमने लपक लिया,<br />"समीर जी इतनी सारी टिप्पणीयाँ करने और पढने का समय कैसे निकालते हैं?<br />समीर जी ने अपना प्रिय काला चश्मा उतारा,<br />कनखियों से हमें निहारा<br />और बोले नादान "सीसीपी" का जमाना है<br />हम ठहरे लिपट अज्ञानी,<br />गावदी की तरह आँखें झपकाई और दोहराया "सीसीपी"<br />समीर भाई मुस्कुराये, धीरे से बुदबुदाये<br />"कट,कापी और पेस्ट"।<br /><br />हम बलिहारी थे<br />और अपनी अक्ल पर पानी-पानी थे।<br />काश पहले जान जाते,<br />समीर जी की जगह लोगों की ज़ुबां पर अपना नाम पाते,<br />पार्टी उनके सम्मान में नहीं ज़नाब हमारे लिये हो रही होती,<br />तभी ज्ञानदत्त जी पर नजर पडी-<br />हम तपाक से मिले पूछा -<br />इतनी विविधता कहां से लाते है?<br />रोज़ ब्लाग पोस्ट करने का टाइम कहां से पाते हैं?<br />वो थोडा सा सकपकाये फिर,<br />उन्होनें ऊपर से नीचे तक निहारा<br />और तपाक से बोले- "सरकारी मुलाज़िम हूँ इतना तो जानते हैं"।<br /><br />काश धरती फट जाती और हम उसमें समा जाते,<br />अपनी कम अक्ली पर लोगों के तानों से तो बच जाते।<br /><br />भीड में सारथी जी हर किसी को<br />ब्लागरी करने और पढने के लिये<br />"मोटिवेट" करते नजर आये।<br />जिस हिसाब से लोग प्रभावित थे<br />उस हिसाब से ब्लागर्स की संख्या<br />दस हजार की जगह<br />पंद्रह हजार का आंकडा छूयेगी<br />हम प्रभावित थे उनके डेडिकेशन से।<br /><br />दूर नजर पडी संजीत जी पर<br />ज़नाब मजमा जमाये थे-<br />गोपियों की भीड में<br />कान्हा से जमे थे-<br />मुँह में पान भरे थे,<br />किसी बात पर बोले<br />"अपुन साला तो ऐसइच है"।<br /><br />काकेश जी गुरु मंत्र दे रहे थे,<br />संजय गुलाटी जी हस्तरेखा व ज्योतिष का ज्ञान सबमें बाँट रहें थे।<br />एक ओर शैलेष जी,राजीव जी व गिरीराज जी<br />हिन्दयुग्म की "पब्लिसिटी" में लगे थे<br />दूसरी ओर अनिता जी सौम्य सी,<br />ऑर्कुट को ज्वाइन करने के फायदे गिना रही थी।<br />भई हम उनसे सौ प्रतिशत सहमत हैं,<br />"ना ये बात होती<br />ना वो बात होती"<br />वाला आलम हम भी जानते हैं,मानते हैं।<br />दुहाई हो ऑर्कुट की जिसने आप जैसे मित्रों से मिलाया।<br /></div><br />सुनीता जी उस घडी को कोस रहीं थी जब उन्हें पार्टी देने का आइडिया आया। बाकी सब मेलमिलाप में व्यस्त थे और वो बेचारी ग्यारह साल के कवि अक्षत के साथ एक पाँव से चक्करघिन्नी बनी हुई थी। काश ये एहसास पहले होता तो समीर जी से औपचारिक मुलाकात ही कर लेती, थोडे बहुत गुरु-मंत्र पा लेतीं।<br /><br />तौबा मत करिये जनाब आज बस इतना ही थोडे दिनो के बाद जब आप सब हमें झेल पाने का धैर्य फ़िर से पा लेंगे, तब पुनः उपस्थित होंगे और इस स्वप्नदर्शी पार्टी का शेष हाल सुनायेंगें।<br /><br /><br /><br /><span style="color: rgb(255, 0, 0);">(यह रचना सिर्फ़ मौज-मस्ती के मूड में लिखी गई है, आशा है इसे पाठक या अन्य कोई भी, अन्यथा नही लेंगे।)</span>anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-11624875763385007882007-11-05T13:27:00.000+05:302007-11-05T13:31:02.945+05:30एक परम्परा यह भी"हताई" गाँव में किसी भी समस्या के समाधान के लिये जो बैठक बुलाई जाती है, उसे हताई कहते है। इसमें सिर्फ गाँव के पुरुष ही हिस्सा लेते हैं। हताई को एक तरह से गाँव का कोर्ट भी कह सकते हैं। छोटे-मोटे झगडे,मनमुटाव आदि यहाँ पर निपटाये जाते हैं। तथा गाँव के हित में लिये जाने वाले निर्णय भी यहीं लिये जाते हैं।<br /><br /> हताई में किसी भी महिला का भाग लेना तो दूर उस स्थान के नजदीक जाना तक उसके लिये निषेध होता था।पर समय के साथ कई जगह अब परम्परायें भी बदल रही हैं।<br /><br /> भीलवाडा जिले के उप तहसील करेडा के पास सिंजाडी का बाडिया में दलित महिलायें भी गुर्जर समुदाय के साथ हताई में भाग लेती हैं। महिलाऒं के इसमें शरीक होने से दो फायदे हुए एक तो दोनों समुदाय के बीच के टकराव कम हुए। दुसरे गाँव से जुडा कोई भी मामला अदालत तक नहीं पहुँचा । पिछले दस सालों से यह बदलाव आया है । ग्रामीण स्तर पर शुरु होने वाली कई परियोजनाऒं में महिलाऒं की सक्रिय भागीदारी है।शुरु में महिलाऒं की भागदारी को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई।विरोध के स्वर भी उठे पर बाद में सामाजिक स्तर पर आये परिवर्तनों ने विरोधियों को चुप होने पर मजबूर कर दिया।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-76223912016584160322007-11-01T10:54:00.000+05:302007-11-01T11:03:17.651+05:30क्या ये उचित है?राज्यसभा में विपक्ष के नेता जसवतं सिंह जैसे वरिष्ठ राजनीतिज्ञ द्वारा अपने पैतृक गाँव जसोल में अफीम की मनुहार करना क्या उचित है? एक तरफ आप एक प्रबुद्ध नागरिक होते हैं ,दूसरे सक्रिय राजनीति में होने पर समाज के प्रति उनकी जवाबदेही बनती है। समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिये प्रतिबद्ध होने की ना कि उसकी जगह रीतिरिवाज की दुहाई देकर दूषित परिपाटी का निर्वाह करने की। ये क्या उचित है?<br /><br /> मारवाड क्षेत्र की परम्परा है कि जन्म,परण या मरण जैसे मौकों पर ,शरीक होने वाले लोगों से अफीम की मनुहार करीं जाती है। ये किसी जमाने में काफी लोकप्रिय और सम्मानीय परम्परा मानी जाती थी। कहा जाता था कि यदि किसी शत्रु ने अफीम की मनुहार स्वीकार कर ली तो दुश्मनी उसी क्षण से समाप्त हो जाती थी। मगर ये तो बीते दिनों की बात हुई।<br /><br /> अफीम मनुहार के कई दुष्परिणाम भी सामने आये। आयोजनों में मनुहार करीं गई अफीम को चखते-चखते कब लोग इसके गुलाम बन जाते हैं -इसका अहसास तब होता है जब आदी व्यक्ति अपने घरबार ,जमीन आदि को बेच कर भी अपनी जरुरतों को पुरा करता है। भीलवाडा क्षेत्र में नशा मुक्ति केन्द्र में आने वालों में बडी संख्या ग्रामीण स्तर से आने वाले अफीम के आदी लोगों की होती है।<br /><br /> कानूनन अफीम रखना और उसकी मनुहार करना अवैद्य है।एनडीपीसी एक्ट के तहत इसमें सजा का भी प्रावधान है।लेकिन जब हमारे नेता ही कानून की धज्जियाँ उडाते है तो और किसी का क्या कहना।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-292447786408599636.post-90371295225275378842007-10-29T06:19:00.000+05:302007-10-29T06:23:18.728+05:30करवाँचौथहमारा पहला करवाँचौथ एक आयोजन जैसा था ।दो महीने पहले से मम्मी की खतो-कितावत शुरु हो गई थी।मजमून रहता था एक ही आपके यहाँ क्या रस्में होती है?कितनी साडी लानी है ,कितने करवें लाने है? कब आना होगा वगैरह वगैरह।<br /> मुझे जरुर कुछ अजीब सा लगता था। सीधे-सादे तरीके से मम्मी को व्रत करते देखा है बस ।जब-तब मौका पाकर अपनी मम्मी को घुडकी मारती थी -आपको क्या जरुरत है ? क्यों पूछती हो ? जो करना होगा वो ये लोग करेंगें करवाँचौथ तो ससुराल की होती है। मम्मी समझाती ये सब शगुन होते हैं ।पीहर वालों को करने ही होते हैं।पर मन मानने को तैयार नहीं होता था।<br /> खैर करवाँचौथ से एक दिन पहले मम्मी ढेर सारे सामान के साथ आयी ।मम्मी को देखकर खुशी हुई और सामान को देखकर कोफ्त । कोई तुक समझ नहीं आ रहा था ।मम्मी हमारे स्वभाव को जानती थी अतः पूरे समय समझाती रही कि जो भी चीज है उसका अभी होना क्यों आवश्यक हैं।शायद तब भी बात हमारे गले नीचे नहीं उतरी थी। रात में मम्मी (सासु मां) ने पूछा तुम किस तरह का व्रत करोगी ? पानी पियोगी या नहीं ? "आप जैसा कहें" भई हम तो पानी भी नहीं पीते है साल में एक बार तो सुहाग के लिये व्रत करतें हैं ।आगे तुम्हारी इच्छा वो बोलीं।'मैं भी नहीं पीऊंगी' सुनकर वो बडी सन्तुष्ट हुई। आदेश दिया कि सुबह चार बजे जागकर नीचे आ जाना। अच्छा, मरे से स्वर में हम बोले थे नींद और वो भी सुबह की बडी प्रिय थी हमें और उतना ही अप्रिय आदेश लगा था।सुबह एकाएक भडभड कि आवाज सुनकर चौंककर जागे देखा तो मम्मी हमें जगाने आयी थी खैर अनमने मन से उठ कर आये तो पाया बहुत सारी खाने की चीजें सजायी हुई थी ,चाय भी तैयार थी।बडी झुंझलाहट हुई कि सिर्फ इसलिये जगा दिया।"मन नही हो रहा "बोला तो मम्मी बोली शगुन होता है मुंह तो झूठारना होगा ।जैसे -तैसे कुछ निगला और ढेर सारा पानी पिया।मम्मी बोली जाऔ अब सो जाऔ।तब मम्मी बडी अच्छी लगी।<br /> सुबह से घर में उत्सव का सा माहौल था।मौका पकर पतिदेव ने फर्माया "चुपचाप पानी पिलो"किसी को भी पता नहीं चलेगा।नहीं जैसा व्रत लिया है वैसा ही करेंगें।किस के लिये कर रही हो व्रत मेरे लिये ना,फिर भी कहना नहीं मानती।अब वो भी तरह-तरह के हथकंडे अपना रहें थे। क्या दकियानुसी बातें करती हो लोग चाँद पर पहुंच गये हैं. पर ये हैं कि वक्त के साथ बदलना ही नहीं चाहती ।जब नानस्टाप भाषण शुरु हुये तो हमने आवाज़ लगायी मम्मी देखिये और ये उझल कर भागते नजर आये।<br /> दिन में हाथों में मेंहंदी लगायी गई,पैरों में आलता, नये कपडे और नई चुडियाँ ,ढेर सारे गहने ,माँग आगे से पीछे तक भरी हुई।शाम को मनीष जब घर लौटे तो हमको देखकर भौंचक "तुमसे मना नहीं किया गया मेंहंदी के लिये , थोडा सिन्दुर क्यों छोड दिया वो भी लगा लेती,कार्टुन बनने का शौक है तुम्हें" ये चिढे हुये स्वर में बोले ।मैं रुआंसी सी समझ नहीं आता था क्या करूं । किसकी बात मानूं किसकी नहीं। कोई एक तो नाराज होगा ही ना।<br /> उस दिन मम्मी ने तरह-तरह के खाने की चीजें बनाई।अंधेरा होते ही ननद और देवर को बारी-बारी से छत पर भेजा जाने लगा।थोडी देर बाद सारी पूजा की सामग्री के साथ सभी छत पर थे। करवाँचौथ पर कैसा चौकपूरा जाता है ये मम्मी ने बताया ।पूजा करीं अब बारी थी चन्द्रमा को अर्ध्य देने की ।इन्तजार कुछ लम्बा और लगभग असहय हो रहा था।मनीष हमारी हालत से नावाकिफ ना थे। अब चंद्रमा को देखने की कमान उन्होंने संभाली।बंदर की तरह छज्जे को पकडकर उपर वाली छत पर चढे ।निकल आया चांद ,चलो जल्दी से अर्ध्य दो ये बोले।<br /> मैं और मम्मी आँखे फाडे असफल चेष्टा कर रहे थे। थोडी देर में चाँद दिख ही गया और पूजा पूरी करी गई।बारी-बारी से घर के बुजुर्गों के पैर छू कर सदा सुहागिन होने और पूतने फलने का आशीर्वाद लिया गया। तभी मम्मी ने बोला अपने पति के पैर छुऒ ।एक बार लगा गलत सुन लिया है।क्यों? उनके दोबारा कहने पर अनायास पूछ ही लिया।पति का पद हमेशा बढा होता है।अब तक रहा -सहा धैर्य जवाब दे चुका था ।ये भी कोई बात हुई क्या मम्मी हम बराबर के हैं -मैं बोली। ऐसा कभी होता है क्या मम्मी, हम बचपन से साथ खेलें हैं। कितनी बार तो पिटायी करी है इनकी। देखिये आपके कहने से सब कुछ तो बदल लिया नाम भी नहीं लेती हूं अब तो । अभी तक दूर खडे ये बातों का मज़ा ले रहे थे। बोले छूऒ ना। मम्मी का कहना भी नहीं मानोगी।कभी कहना मानने पर भुनभनाहट सुनती हूँ और अभी कहना ना मानने की दुहाई।क्या करूं कुछ समझ नहीं आ रहा था। खैर काफी ना -नुकर के बाद जब पैर छुने झुकी तो ये भाग लिये।तब जा कर राहत की साँस ली वरना थोडी ही देर में हमने ना जाने क्या-क्या सोच लिया था।<br /> अब बारी थी व्रत खोलने की अति उत्साह में मम्मी ने सब कुछ बडे प्यार से और ठूंस-ठूंस कर खिलाया पूरे दिन के बाद इस तरह खाने से जो पेट में दर्द उठा कि हालत खराब ।उस रात जिस तरह मनीष ने देखभाल करीं उससे में अभिभूत हो गई। आज इतने सालों बाद भी लगता है जैसे कल की ही बात थी।anuradha srivastavhttp://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.com7