Saturday, July 28, 2007

कविता

आधुनिक जीवन शैली की देन कि आदमी भीड में भी तन्हा है-

आदमी
मैं अवसादों से घिरा एक आम आदमी
दिक-भ्रमित,विश्रान्त आदमी
अनिश्चय की साकार मूर्ति
मैं एक क्लान्त आदमी
बाहें पसारें समा लेने को सारा जग
पर पाता मृग-मरीचिका शून्य
एक बार फिर मैं असहाय आदमी
उद्वेलित, आलोडित एकाकी आदमी

Saturday, July 21, 2007

अंतर्मन

अंतर्मन




मैं नहीं चाहती मौन रहना


पर मेरी मुखरता मुझ अकेली की नहीं है,


तमाम नारियों का प्रतिनिधित्व करती हूँ।


कुछ किताबों में पढी आदर्श बातें,


चन्द भाषणों के अंश,


कुछ टिप्पणियां


और


कुछ कसकता मेरा अंतर्मन।


मैं चिल्लाना चाह कर भी मौन हूँ,


भीड में कौन सुन पायेगा,


समर्थन दे पायेगा?


मेरा अंतर्मन वाचाल है,मुखर है्।


मैं नहीं चाहती मौन रहना


पर क्या कोई इसे सुन पायेगा,


हाँ! सुनकर


सदियों से चली आ रही परम्परा का


पाठ जरुर पढायेगा।


नारी होने का अहसास जरुर करायेगा,


कुछ नहीं तो मौन रहने का भाषण जरुर दे जायेगा


नहीं चाहती मैं मौन रहना!!