Friday, December 7, 2007

"शिक्षक बनाम बिना रीढ की हड्डी वाला प्राणी"

एक समय था जब शिक्षक को सबसे सम्मानीय समझा जाता था। जहाँ तक मेरे बचपन की मुझे याद है हम अपने शिक्षक के नियमित रूप से पैर छूते थे। वो भी प्रत्येक विद्यार्थी को निजी तौर पर जानते थे।
आज ना शिक्षक अपने विद्यार्थी को जानता है ना उसका उसे मौका ही मिल पाता है। बेचारे सरकारी शिक्षक की ड्यूटी विद्यालय को छोड कर हर जगह जो लगा दी जाती है। मतगणना हो या पशुगणना,बीपीएल सूची के लिये नामों की लिस्ट बनानी है या मतदाता सूची का नवीनीकरण करना है,सर्व उपलब्ध प्राणी है ना शिक्षक । मिड डे मील के नाम पर खाना तक बनाना पडता है।आर्थिक गणना हो या पल्सपोलियों,स्वास्थ्य संबंधी जानकारी के लिये कोई आंकडे उपलब्ध कराने हो तब भी उन्हें ही भेजा जाता है. बिना ये जाने की उनके इतर कामों में व्यस्त रहने का खामियाजा बच्चे भुगतते हैं।एक तरफ साक्षरता दर बढाने के प्रयास हो रहें हैं, तो दूसरी तरफ शिक्षक के अभाव में पढाई से अरुचि के कारण स्कूल छोड कर जाने वाले बच्चों की संख्यां भी कम नहीं है।
दोष किसे दें हमारे तंत्र को या शिक्षकों को? कभी शिक्षकों की मनःस्थिति जानने की कोशिश करी गई है क्या ? वो कितने मानसिक तनावों से गुजरते है। किसी तरह पाठ्यक्रम को पूरा कराना साथ ही अन्यत्र लगायी गई ड्यूटी का निर्वाह करना। अन्त में खराब रिजल्ट देने पर गाज़ भी उन्हीं पर गिरती है। जब कभी अपने साथियों को दर-दर आंकडे एकत्रित करते पाती हूँ तो अपने नौकरी ना करने के निर्णय को खुद ही सरहाती हूँ। जिस उद्देश्य और मानसिकता के तहत इस कार्यक्षेत्र का चुनाव किया जाता है । उससे नितान्त अलग प्रकृति के जब काम करने पडते है ,तो कैसी कोफ्त होती है। ये तो वो ही अच्छे से जानता है जो कि भुक्तभोगी है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आज कुछ राहत महसूस हुई है जिसमें की आदेश दिये गये है कि शैक्षिक दिवस के दौरान शिक्षकों की अन्यत्र ड्यूटी ना लगाई जाये। उम्मीद है इससे शिक्षकों को कुछ तो राहत मिलेगी।

9 comments:

Sanjeet Tripathi said...

सही बात कही आपने!!
ऐसी उम्मीद की जा सकती है!
छत्तीसगढ़ में हम देखते है कि शिक्षकों की भूमिका वही हो गई है जैसे सब्जियों मे आलू, कहीं भी खपा दो।
मतदाता सूची बनाने से लेकर चुनावी ड्यूटी, राष्ट्रीय पशु गणना, पोलियो ड्रॉप पिलाने। सब काम के लिए शिक्षक ही, पढ़ाई पर पर असर पड़ता है तो पड़ता रहे!!

बालकिशन said...

एक बहुत ही संवेदनशील और अनछुए विषय पर आपने बहुत ही अच्छे तरीके से लिखा है. और छोटे से लेख के माध्यम से कई यक्ष प्रश्न खड़े किए है.
इसकी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा सरकारी तंत्र पर आती है इसके बात शिक्षक और अंत मे हम जन साधारण पर आती है.
सब अपनी-अपनी जगह अगर इमानदार प्रयास करे तो कुछ सम्भव है.

लेकिन..............

समयचक्र said...

मै आपके विचारो से पूर्णतः सहमत हूँ. शिक्षको से तरह तरह के कार्य लिए जाते है जिसके कारण शिक्षक अपने कर्तव्य का निर्वहन भली भाति नही कर पा रहे है जिसके कारण बच्चो का भविष्य भी प्रभावित होता है, सुप्रीम कॉर्ट के निर्णय से अभी शिक्षक वर्ग को थोड़ी ही राहत मिली है . मध्यप्रदेश मे शिक्षको को बच्चो को मध्यान्ह भोजन क़ी व्यवथा करने ऑर भोजन के बरतनो को ख़रीदने से लेकर सॉफ सुथरा रखवाने क़ी ज़िम्मेदारी भी सौपी गई है. यह सब उचित नही है. खेद का विषय है क़ी बेचारे शिक्षक को मजबूरी के कारण करना पड़ता है न करे तो विभागीय अनुशासनात्मक कार्यावाई क़ी तलवार उनके उपर लटकती रहती है , गुरुजनो से मात्र शिक्षण का ही काम लिया जाए तो शिक्षा का स्तर सुधारने मे भी मदद मिलेगी ऑर बच्चो का भविष्य उज्जवल होगा. सुप्रीम कोर्ट को इस पर भी ध्यान देना चाहिए.

समयचक्र said...

मै आपके विचारो से पूर्णतः सहमत हूँ. शिक्षको से तरह तरह के कार्य लिए जाते है जिसके कारण शिक्षक अपने कर्तव्य का निर्वहन भली भाति नही कर पा रहे है जिसके कारण बच्चो का भविष्य भी प्रभावित होता है, सुप्रीम कॉर्ट के निर्णय से अभी शिक्षक वर्ग को थोड़ी ही राहत मिली है . मध्यप्रदेश मे शिक्षको को बच्चो को मध्यान्ह भोजन क़ी व्यवथा करने ऑर भोजन के बरतनो को ख़रीदने से लेकर सॉफ सुथरा रखवाने क़ी ज़िम्मेदारी भी सौपी गई है. यह सब उचित नही है. खेद का विषय है क़ी बेचारे शिक्षक को मजबूरी के कारण करना पड़ता है न करे तो विभागीय अनुशासनात्मक कार्यावाई क़ी तलवार उनके उपर लटकती रहती है , गुरुजनो से मात्र शिक्षण का ही काम लिया जाए तो शिक्षा का स्तर सुधारने मे भी मदद मिलेगी ऑर बच्चो का भविष्य उज्जवल होगा. सुप्रीम कोर्ट को इस पर भी ध्यान देना चाहिए.

मीनाक्षी said...

शिक्षकों की भूमिका पर आपकी बात पढ़कर मुझे छोटी बहन याद आ गईं जो अक्सर छेड़ा करती है.... दीदी , सुविधाओं में पढ़ाना क्या पढ़ाना है... अपने देश में आकर पढाओ तो पता चले...हम दोनों बहनें ही शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी हैं.
अपने देश के सभी शिक्षक जन को नत मस्तक प्रणाम !

नीरज गोस्वामी said...

आप के कथन का मर्म मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ. मेरे पिता माता स्वसुर और पत्नी शिक्षक रहे और हैं. आज भी माता पिता के पुराने शिष्य कहीं मिल जाते हैं तो जिस श्रद्धा से वो पैर छूते या प्रणाम करते हैं वो बताया नहीं जा सकता. शिक्षा के साथ साथ शिक्षकों का भी अधोपतन हुआ है.
आप की बात से मैं शतप्रतिशत सहमत हूँ.काश शिक्षकों का वैसा ही सम्मान फ़िर होने लगे जैसा हमारे समय में होता था.
नीरज

डाॅ रामजी गिरि said...

"मिड डे मील के नाम पर खाना तक बनाना पडता है।आर्थिक गणना हो या पल्सपोलियों,स्वास्थ्य संबंधी जानकारी के लिये कोई आंकडे उपलब्ध कराने हो तब भी उन्हें ही भेजा जाता है. बिना ये जाने की उनके इतर कामों में व्यस्त रहने का खामियाजा बच्चे भुगतते हैं..."

आज की शिक्षा और शिक्षकों की व्यथा पर आप के विचार काफी सटीक और प्रासंगिक है.

Gyan Dutt Pandey said...

शिक्षकों के प्रतिमान के रूप में मुझे गिजुभाई बधेका याद आते हैं। न वैसे शिक्षक रहे और न वैसा सम्मान। आजाद भारत की राजनीति ने शिक्षक और शिक्षा को पंगु कर दिया।

पुनीत ओमर said...

पर ये सब बाकि के काम करने के लिए भी तो कोई चाहिए न... जिसे कोई भी अपने घर में घुसने दे बेहिचक..