Tuesday, July 6, 2010

शब्द ,मैं चाहती हूं तुमसे दोस्ती करना

बिखरे हुए शब्द उलझे हुए अर्थ

और उन सबसे झुझती मैं

संभाल नहीं पाती

अपनी अभिव्यक्ति के लिये

कोई भी माध्यम

वाणी पहले ही साथ छोड चुकी थी

फिर भी

शब्दों को संजोती थी

सजाती थी छौने की भांति

बदलते वक्त से वो भी बेगाने हो चुके हैं

शब्द अब अर्थों को मन्तव्य को उद्भासित नहीं करते

मैं

अब विचलित नहीं होती

शब्द अब शायद तुम्हारी जरुरत

नहीं सम्वेदना बाकी होती तो शायद तुम्हारा दामन थामती भी

शब्द मैं तुमसे खेलना चाहती हूं

फिर से भावों की लडियां संजोना चाहती हूं

रूको पहले सम्वेदना जगा लूं

फिर तुम्हारा दामन थामूंगीं

जानती हूं जब भी मैं तुम्हें पिरोती हूं माला सा

तो उत्साहित होती हूं बच्ची सी

शब्द सच्ची मैं चाहती हूं तुमसे दोस्ती करना

6 comments:

Unknown said...

sundar abhivyakti

Unknown said...

sundar abhivyakti

प्रवीण पाण्डेय said...

सबके मन की बात कितनी सरलता से कह दी आपने ।

शरद कोकास said...

शब्दों से यह संवाद अच्छा लगा

अविनाश वाचस्पति said...

आप खेल शुरू तो कीजिए। शब्‍द खुद ब खुद खिलवाड़ के लिए हाजिर मिलेंगे और अहसासों का क्‍या, वे तो हर सांस में खिलेंगे।

Satish Saxena said...

कई बार शब्द न होने पर पूरे जीवन की कसक रह जाती है सो शब्दों का आवाहन अच्छा लगा ! शुभकामनायें, आपकी अभिव्यक्ति अच्छी है !