मुंदी पलकें बुने ख्वाब
पल-पल किया तुम्हें याद
तुम नहीं आये
यादें,बातें घेरे रही
डाल आलिंगन भीचें रहीं
पर
तुम नहीं आये
ख्वाब कतरा-कतरा
अश्क बन बह चलें
पर
तुम नहीं आये
अश्कों को,ख्वाबों को
बातों को ,यादों को
आहिस्ता से
फिर से सहेजा
नये सिरे से मुंदी पलकें
तुम आये
हाँ
तुम आये
अर्थी को मेरे कांधा देने
अब तुम हो
मगर
मैं बीती याद बन
चल पडी
अन्तहीन सफर को
अब
तुम्हारी खुली आंखों में
अश्क हैं-यादें हैं
कसक है -मलाल है
पर
अब हम नहीं
7 comments:
"तुम्हारी खुली आंखों में
अश्क हैं-यादें हैं
कसक है -मलाल है
पर
अब हम नहीं"
खुली हों आखें अभी भी
वाकई में,
कसक है, मलाल है अभी भी
वाकई में,
तो वहां पर हम जरूर हैं,
कहीं न कहीं !
-- शास्त्री जे सी फिलिप
मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार !!
अनुराधा जी!
सुंदर कविता के लिये बधाई! पढ़कर याद आया-
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि
सब अँधियारा मिट गया, जब दीपक देख्या माँहि
अक्सर होता है कि हम किसी चीज की समय रहते कद्र नहीं कर पाते और जब करना चाहते हैं तो देर हो चुकी होती है.
जब मैं छोटा था (८वीं से १०वीं कक्षा की बात है) तो लड़के-लड़कियाँ अपने लव-लेटरों में इसी तरह की बातें लिखा करते थे। यादें हरी हो गईं।
वाह कहना चाहता था पर मुंह से आह निकल रही है.
सुंदर ।
सुंदर, अति सुंदर ।
सरल सहज रूप में खुली आँखों में यादों की तरह उतर जाने वाली रचना..
खुली आँखों मे अश्क हैं यादें हैं ...!
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