Wednesday, March 12, 2008

हां,मैं नारी हूं




नारी, तुम नारी हो
सब कहते रहे
मैं लडती रही
जूझती रही
सब कुछ बदला
पर मुझे लेकर
मानसिकता नहीं
अब मैं थक चुकीं हूं
आक्षेपों से
अवहेलनाऒं से
हां! मैं नारी हूं
सिर्फ नारी


Saturday, March 8, 2008

सिर्फ बातों से क्या होगा

विश्वमहिला दिवस के रुप में फिर आ गया ८ मार्च। सही मानिये सिर्फ रुप में ही है। मुझे समझ में नहीं आता कि क्या आवश्यकता है किसी भी अवसर या मौके को दिवस के रुप में मनाने का । आखिर औचित्य क्या है? महिलायें जैसी पहले थी वैसी अब भी हैं। उनकी सामजिक स्थिति और उनके दायरें वो सब भी पहले जैसे ही हैं।

बात चाहे जननी बनने की हो या पुत्री जनने की यहां भी वो मोहताज है दूसरों के निर्णय को मानने के लिये। माना बच्चे का आगमन संयुक्त प्रयास है पर गर्भ धारण तो महिला ही करती है ना पूरे नौ महीने। फिर ये अधिकार उसे क्यों नहीं कि- लडका हो या लडकी संतति उसकी अपनी है।ये उसका अपना निर्णय होना चाहिये ना कि वो उसे दुनिया में लाये अथवा नहीं।


अखबार व न्यूज़ चैनल में आज भी महिला प्रताडना,बलात्कार व शोषण की खबरें आम हैं। क्या फर्क पडता है? ये तो रोज़ होता है। फिर आज ही क्यों इसकी चिन्ता। इसमें नया भी क्या है।"विश्व महिला दिवस " घोषित करने मात्र से ये सब रुक जायेगा? खत्म हो जायेगा? नहीं ना जब तक विचारों में परिवर्तन नहीं आयेगा तब तक परिवर्तन सिर्फ आकडों में ही रहेगा।


शक्ति ,शक्ति होकर भी निःशक्त है। क्यों है भई? किसने कहा? क्यों सहती है? ना जाने कितने सवाल उठ खडे होतें हैं इन बातों से। परम्परा, मानसिकता,रूढियां व अन्ततः स्वभाव उसे ऐसा बना देता है। जो पीढी दर पीढी देखती चली आ रही है ,उसे परम्परा रुप में निर्वाह करती है। कई बार हालात से विचलित होकर रास्ते व सोच बदले भी हैं। पर मन के किसी कोने में मलाल भी रहा है।यही सहनशक्ति उसकी ताकत है कमजोरी नहीं। इसी स्वभाव की वजह से वो धुरी है सृटि की।


ग्रामीण अचंलों में आज भी अधिकांश महिलायें घर,खेत,पशुपालन में बराबर की सहभागिता रखती हैं। पर फिर भी वो आर्थिक रुप से विपन्न और आश्रित हैं साथ ही प्रताडित भी। अन्धविश्वास की सूली पर वही चढायी जाती है कभी डायन बता कर तो कभी चुडैल बता कर। हकीकत की सतह पर देखिये तो हम ,हमारे प्रयास और हमारी योजनायें ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं।


दिवस मनाने की जगह जरुरत है -संवेदनशील और जागरुक बनने की बनाने की। संगदिल बन कर खूब रह लिये। अब आवश्यकता है विस्तार की सोच में ,कार्यकलापों में। अवसर दीजिये महिलाऒं को मानसिक स्वावलंबन का। निर्णय शक्ति दीजिये उन के हाथों में फिर देखिये बदलाव का दौर। बात यहां आम महिला की है जो ग्रामीण व पिछडे क्षेत्र की है। बातों में भाषणों में उन्हें अधिकार तो दे दिये जाते हैं पर निर्णय लेने की क्षमता व सोच पर से जब तक अंकुश नहीं हटायेंगें तब तक विकास अवरुद्ध ही रहेगा।


विकास चाहे घर का हो या समाज का । ये प्रभावित होता रहेगा जब तक कि महिलाऒं का आनुपातिक प्रतिनिधित्व हिस्सेदारी व सक्रियता उसमें नहीं होगी तब तक। महिलाऒं की साझेदारी के बिना किसी भी क्षेत्र का काम व विकास बाधित होगा, प्रभावित होगा। साथ ही "विश्व महिला दिवस" को तभी "मखौल दिवस" बनने से बचाया जा सकता है।

Friday, March 7, 2008

आज भी शर्मिन्दा हूं मां

आज कैंसर से जुझ रही और उससे उबर चुकी महिलाऒं का इन्टरव्यू देखा। कई बार ज़ेहन में मां आपका अक्स उभरा। कई बार आंखें नम हुई।नये सिरे से आपकी साहसिक ,एकाकी और जुझारु छवि से रुबरु हुई। मन के किसी कोने में पश्चाताप भी है और दुख भी। जब भी खुद को आप से तुलनात्मक रुप में देखती हूं तो शर्म आती है। आपके तो पासंग भी नहीं होते हम लोग। ना जाने कितने संस्मरण है जो आपकी छवि को थोडा और महान बना देते हैं हमारी नज़रों में। वैसे देखा जाये तो बिल्कुल मामूली आम भारतीय महिला सी हैं आप। लेकिन फिर भी भीड में आप अलग सी हैं।

पापा की असामयिक मृत्यु से स्तब्ध और विचलित हम। आप मन ही मन हम सबसे ज्यादा टूटी और बिखरी हुई। भावनात्मक अंतर्द्वन्द से घिरी हुई ।पर हमें देखकर आप अपने मनोभावों को छिपाकर हमारा संबल बन जाती थी। पापा के जाने के बाद हमारी मित्र मंडली की स्थायी सदस्य हो गईं थी आप। चाहे दोस्तों या मंगेतर के साथ मूवी जाना हो या पिकनिक आप हमारे साथ होतीं थीं। ना कभी हमें आपकी उपस्थिति अखरी ना हमारे दोस्तों को क्योंकि आप इतनी सहज रहती थी कि कभी कोई दुराव या छिपाव रहा ही नहीं आपसे। हर तरह की बातें आपके सामने होती ।शरारतें होती पर आप तटस्थ बनीं रहती। शायद यही आपकी खूबी थी।

बिना बोले आप हमारे सुख-दुख ,हमारी जरुरतें समझ जाती थी। और जुट जाती थी प्राणप्रण से उसे पूरा करने। कभी आपने दबाव में आकर समझौते नहीं किये। कितनी भी विषम परिस्थितियां बनीं ,आपने उनका मुंहतोड मुकाबला किया। आपके लिये चिरप्रतिक्षित समय था हम दोनों भाई-बहिन की शादी का। हर काम ,हर व्यवस्था खुद अकेले संभाले हुये थीं। यहीं वो समय था जब आपका स्वास्थ्य गिर रहा था सबने सोचा चिन्ता,अकेलापन काम की अधिकता इसका कारण है। पिछले एक महीने से लगातार बुखार बना हुआ था। आपने जब डॉ. को दिखाया तो खुद ही मर्ज भी बता दिया कि कैंसर है। ये सुनकर सब हंस पडे थे, पर आप गम्भीर थी। " पारिवारिक है ये मर्ज" ऐसा बता कर आप चुप हो गयी। हम सब चाहते थे कि एक बार आप अच्छी तरह से पूरा चेकअप करा लें । पर आपने शादी से पहले ऐसा कुछ भी कराने से मना कर दिया। शादी भी शन्ति पूर्वक सान्नद हो गईं। पर आप फिर नौकरी से छुट्टी ना मिलने की बात कह कर टाल गईं। तीन महीने बाद आप अकेले ही जयपुर अपना चेकअप कराने गईं तो डॉ. ने साथ किसी को लेकर आने की सलाह दी। और आप हंस दी थी कि जरुरत नहीं है। पर डॉ की खास हिदायत पर अंकल को लेकर आप गईं। बायप्सी हुई उसकी रिपोर्ट आयी डॉ ने कैंसर बताया तो आप उतने ही शान्त स्वर में बोली जानती हूं,पता था ये तो। जल्द से जल्द ऑपरेशन कराना होगा सुनकर आपने डॉ से मोहलत मांगीं की एक ही भाई है।उसकी शादी नहीं हुई है,मैं ही सबसे बडी और सब काम करने वाली हूं। अपना वो काम भी पूरा कर लूं फिर ऑपरेशन कराऊंगी। डॉ ने समझाया कि ये जानलेवा हो सकता है पर आप टस से मस नहीं हुई। खैर मामा की शादी निपट गई। जून मध्य का समय हो गया आप फिर से डॉ से मिली की अब ऑपरेशन की तारीख दे दीजिये। उन्होनें पूछा कोई और काम रह तो नहीं गया याद कर लीजिये। आप धीमे से मुस्कुरा पडी नहीं अब कुछ नहीं रहा। तारीख तय होने के बाद मैं ,मनीष ,भैया और भाभी पहुंच गयें । हर बार की तरह अब भी आप हमारे आंसु पौंछ रही थी समझा रही थी-"कुछ नहीं होगा भगवान पर भरोसा रखो"।

ऑपरेशन से जाने से पहले आप जुटीं हुईं थी अपना उपन्यास पूरा करने में। हम सब एक-दुसरे से मुंह छुपाते हुये बहादुर होने का दिखावा कर रहे थे। ऑपरेशन सफल रहा डॉ ने बुला कर बताया कि कैंसर बुरी तरह फैल चुका है। लास्ट स्टेज़ है। सुनकर कलेजा मुंह को आ गया। हम दोनों भाई-बहिन बस रोये जा रहे थे। जब एक-एक को मिलने की परमिशन मिली तो सबसे पहले भैया गया फिर मैं आपने जब बताया कि आपको ऑपरेशन के बीच में ही होश आ गया था और सारा दर्द आपने अनुभव किया तो हम सिहर उठ थे। डॉ क्या-क्या बात कर रहे थे आपने ये तक बताया। डाक्टर्स को लगा कि ये बात कहीं तूल ना पकड ले तो उन्होने आपसे बात करी। हमेशा की तरह आपने उन्हें भी आश्वस्त कर दिया कि बेफिक्र रहिये। एक तरफ का ब्रेस्ट पूरी तरह से हटा दिया गया था। बगल के नीचे के हिस्से को भी काफी हद तक हटा दिया गया था।

काटेज वार्ड में आप शिफ्ट कर दी गईं । २-३ दिन के बाद से आप अपनी सामान्य दिनचर्या पर आ गई तो हमने राहत की सांस ली। हम जानते थे इतनी तकलीफ के बाद भी आप हमारे लिये सहज बनी हुई डॉ आपके मनोबल से प्रभावित थे। आपके टांके कटे नहीं थे,घाव अभी भी गहरा था फिर अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद सब अपने काम में व्यस्त हो गये।

अब इलाज का दूसरा दौर था थैरेपी का पर आपने उससे हमें दूर रखा। भैय्या कब तक अकेले छुट्टी लेगा ,परेशान होगा ये सोच कर खुद अकेले ही स्कूल से कीमो थैरेपी करवाने पहुंच जाती उसके बाद अंकल को फोन करके घर छोडने के लिये कहती। आपकी दिनचर्या और जिन्दादिली को देख कर कोई आपकी बीमारी का अन्दाजा भी नहीं लगा पाता था। फोन थे नहीं और आप लेटर में कभी अपने स्वास्थ्य के बारें में नहीं लिखती। हर बार एक बात जरुर लिखती "मैं ठीक हूं, चिन्ता मत करना"।--

जिन्दगी अपनी रफ्तार से चल रही थी तीन साल गुजर गये इस बीच आप दादी और नानी बन गई.आप एक बार फिर कैंसर की चपेट में थी इस बार लंग्स और बोन में फैला था। फिर वही लम्बी इलाज प्रक्रिया थैरेपी वगैरह। पर आपने हम लोगो को महसूस नहीं होने दिया की कोई बडी बात हो गयी है। हम सब आपके आश्वासन और बातों में वाकई भूल चुके थे कि आप किस दौर से गुजर रहीं हैं।आपका हौसला ,अदम्य इच्छाशक्ति और जीजिविषा से आप डाक्टर के लिये और हम सबके लिये एक रोल मॉडल बन चुकी थी।

मां अब लगता है सबके होते हुये भी आप अकेली थी अपनी लडाई में। हम अपनी नई-नई गृहस्थी,नये दायित्व व नये रिश्तों को निभाने की कोशिश में लगे थे। कई बार आपको पापा की कमी लगी होगी। वो भावनात्मक सम्बल चाहिये था जो शायद हम नहीं दे पाये।या हमने उस दृष्टिकोण से तो सोचा ही नहीं कि आपको भी किसी की कमी महसूस हो सकती है। हम सिर्फ आपको मां समझ कर व्यवहार करते रहे।ये भूल गये कि आपका अपना वज़ूद है,जरुरतें ,इच्छायें और अपेक्षायें भी होंगी।

मां शायद आपके सामने कभी इतनी इतनी बेबाकी से नहीं कह पाती ।पर जानती हो मां, मैं बहुत खुशकिस्मत हूं कि मैं आपकी बेटी हूं। थोडी शर्मिन्दा भी हूं क्योंकि मैं उम्र के उस दौर में आपकी भावनात्मक जरुरतों को नहीं समझ पायी थी।